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श्री कवि किशनसिंह विरचित तेरसि दिन आंबिल कीजिये, ताकी विधि भवि सुनि लीजिये । एक अन्न षटरस बिनु जानि, जलमें मूक लेई इक ठानि ॥१५५७॥ चउदस चित्त वेलडी थाय, भात नीर जुत मिरच 'लहाय । पूरणवासीको उपवास, किये होय चिर अघको नास ॥१५५८॥ इह कोमलीकी विधि कही, जिन आगममें जैसी लही । आदि अंत करिये एकन्त, दस दिन धरिये शील महन्त ॥१५५९॥ जाके जिमि चउदस उपवास, चौदस पंदरस बेलो तास । तेरस आंबिलके दिन जेह, रहित विवेक आंबली लेह ॥१५६०॥ सदा सरद जाकी नहि जाय, उपजै जीव न संसै थाय । चउदस दिवस बेलडी करे, ता दिन इम अनीति विसतरे ॥१५६१॥ खाहि खेलरा अर काचरी, तथा तोरई निज मत हरी । तिनमें उपजै जीव अपार, सो व्रत दिन लेवों नहि सार ॥१५६२॥
दोहा कांजीके दिन नीरमें, नाखि कसेलो लेह ।
तंदुल जल बिनु अवर कछु, दरव न भाषो जेह ॥१५६३॥ त्रयोदशीके दिन अम्लाहार करे । अम्लाहारकी विधि इस प्रकार है कि छहों रसरहित एक अन्नको पानीमें उबालकर एक बार लेवे। चतुर्दशीके दिन मनमें बेलडी (?) का विचार कर मिर्चके साथ भात और पानी लेवे। पूर्णिमाको उपवास रक्खे। उपवास करनेसे चिरसंचित पापोंका नाश होता है। यह कोमलीकी विधि जिनागमके अनुसार कही है। इस विधिमें व्रतके एक दिन पूर्व और एक दिन बादमें एकाशन करना चाहिये तथा दश दिन तक शील व्रत धारण करना चाहिये ॥१५५७-१५५९॥
जिसने चतुर्दशीका उपवास किया है उसके चतुर्दशी और पंचदशीका बेला होगा। त्रयोदशीके दिन अम्लाहार होगा। अम्लाहारके दिन कोई विवेकहीन मनुष्य इमली लेते हैं, यह ठीक नहीं है, क्योंकि इमलीमें सदा आर्द्रता रहनेसे निःसंदेह जीव उत्पन्न होते रहते हैं। कोई चतुर्दशीके दिन उपवास न कर बेलडी (?) करते हैं और उस दिन इस प्रकारकी अनीति करते हैं कि ककडी, काचरी तथा तोरई आदि हरित वनस्पतियोंका भक्षण करते हैं। इनमें अपार जीव उत्पन्न होते हैं इसलिये व्रतके दिन इनका लेना श्रेष्ठ नहीं है ॥१५६०-१५६२॥
कांजीके दिन पानीमें कोई कसैली वस्तु डालकर लेवे तथा चावल और पानीके बिना अन्य कुछ न लेवे यह कहा गया है ॥१५६३॥
१ मिलाय स०
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