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क्रियाकोष
मूलाचार थकी लिखी, सूतक विधि विस्तार । श्लोकनि संस्कृत ऊपरै, भाषा कीनी सार ॥ १५९० ॥ विद्यानुवाद पूरव थकी, भद्रबाहु मुनिराय । कथन कियो ग्रहशांतिकौ, तिह परिभाष बनाय ॥१५११॥
निज तन नित प्रतिकी क्रिया, अरु पूजा परबंध । श्लोकनि परि भाषा धरी, जहँ जैसो संबंध ॥ १५१२॥
भुजंगप्रयात छंद
कथामें को पंच इन्द्री निरोधं, कथामें कह्यो पंच पापं विरोधं । कथामें कह्यो त्यागिये लोभ क्रोधं, कथामें को मान मायादि सोधं ॥ १५१३॥ कथा मध्य बाईस भाषे अभक्षं, कथामें कह्यो गोरसं भेद भक्षं । कथा मध्य कांजी निषेधं प्रत्यक्षं कथामें मुरब्बादि मरजाद लक्षं ॥ १५१४॥ कथा मध्य मूलं गुणं अष्ट भेदं, कथा मध्य रत्नत्रयं कर्म छेदं । कथा मध्य शिक्षाव्रतं भेद चारं, कथा मध्य तीन्यो गुणव्रत धारं ॥ १५१५॥ कथा मध्य भाषी प्रतिज्ञा सु ग्यारा, कथा मध्य भाषे तपो भेद बारा । कथा मध्य भाषै चहु दान सारं, कथा मध्य भाषे निशाहार टारं ॥१५१६॥
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कथा मध्य संलेखणा भेद भाख्यो, कथा मध्य सुद्धं समभाव आख्यो । कथा मध्य पानी क्रिया कौ विशेषं, कथा मध्य त्यागी कह्यो रागद्वेषं ॥१५१७॥
सूतककी विधि मूलाचारमें विस्तारसे लिखी है उसीके संस्कृत श्लोकोंकी भाषा मैंने की है । भद्रबाहु मुनिने विद्यानुवाद पूर्वमें ग्रहशांतिका जो कथन किया है उसीकी मैंने भाषा रचना की है। अपने शरीर संबंधी क्रिया तथा पूजा प्रबन्धका जैसा वर्णन श्लोकोंमें किया गया है उसीके अनुसार संबंध मिलाते हुए मैंने भाषामय रचना की है ।। १५१०-१५१२ ।
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ग्रन्थकार कहते हैं कि ऊपर पंच इंद्रियोंके निरोधकी कथा की गई है । पाँच पापों का विरोध किया गया है । उसी कथामें लोभ और क्रोधके छोड़नेकी बात कही गई है तथा मान और माया आदिको दूर करनेका वर्णन किया गया है ।। १५१३ || उपर्युक्त कथामें बाईस अभक्ष्य कहे गये हैं, गोरसके भक्ष्य और अभक्ष्यरूप भेद बताये गये हैं, कांजीका निषेध किया गया है, और मुरब्बा आदिककी अभक्ष्यता बतलाई है। आठ मूल गुण, कर्मोंको नष्ट करनेवाले रत्नत्रय, चार शिक्षाव्रत, तीन गुणव्रत, ग्यारह प्रतिमाएँ, बारह तप, चार प्रकारके दान, रात्रिभोजन त्याग, सल्लेखनाके भेद, शुद्ध साम्य भावका स्वरूप, पानी छाननेकी क्रिया, रागद्वेषका परिहार, सत्रह
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