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________________ क्रियाकोष वंदन आवे है असवार, पुनि तनको धारै हथियार । तेल अरगजादिक मिलवाय, 'आवे चरम पादु धरि पाय || १४९६॥* बांधै पाग पेंच फुन देई, आवे तुररादिक ढांई । जूवा खेलै होड बदेय, निद्रा आवै शयन करेय ॥। १४९७॥ मैथुन करै तथा तिस वात, चालै झोम शरीर खुजात । बात करण व्यापार हि तणी, चौपाई पर बैठन गिणी ॥। १४९८ ॥ पान द्रव्य ले जेहै जोय, जलतें क्रीडा करिहै कोय | सबद जुहार परसपर करै, गेंद हि प्रमुख खेलि चित धरै ॥। १४९९॥ जिनमंदिर परवेस जो करै, सबद निसही नवि ऊचरै । पुनि कर जोडै बिनु जो जाय, ए दोन्यों आसातन थाय ॥ १५००॥ ए चौरासी अघकर क्रिया, करनी उचित नहीं नरत्रिया । जिनमंदिर श्रुत गुरु लखि जानि, रहनौं अधिक विनय उर आनि ॥ १५०१ ॥ दोह किसनसिंघ विनती करै, सुनौ भविक चित आनि । क्रिया हीण जिन- गृहि तजो, सजौ उचित सुखदान || १५०२ ॥ तथा शिर पर छत्र चमर आदि धारण कर तथा शरीर पर हथियार धारण कर कोई असवार वन्दनाके लिये आवे, तेल अरगजा आदिकी मालिश करवावे, पैरोंमें चमड़े के जूते पहनकर आवे, पाग बाँधे, उसमें पेंच (गुंडी) देवे, और पागमें तुर्रा, कलगी आदि खोंसकर सुशोभित होकर आवे (अथवा तेज तर्राटेके साथ आवे), जुआ खेले, होड़ बदे, नींद आने पर वहीं शयन करे, मैथुन करे, उसकी बात चलने पर शरीरमें झोख लेवे, शरीरको खुजलावे, व्यापार संबंधी बात करे, चारपाई पर बैठे, पान-मसाला आदि साथ ले जावे, जलसे क्रीड़ा करे अर्थात् परस्पर पानी उछाले, परस्परमें जुहार शब्दका उच्चारण करे, गेन्द आदि खेलोंमें मन लगावे अर्थात् चौपड़ आदि खेले ।।१४९५-१४९९।। जिनमंदिरमें प्रवेश करते समय 'निसही निसही' शब्द न कहे और हाथ जोड़े बिना भीतर जावे ये दोनों आसातनाएँ हैं। ये चौरासी पापकारी क्रियाएँ स्त्री-पुरुषोंको मन्दिरमें करना उचित नहीं है। जिन जिनालय, शास्त्र और गुरुको देखकर हृदयमें अधिक विनय धारण करना चाहिये। कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! चित्त लगाकर सुनो, जिनमंदिरमें हीन क्रियाओंको छोड़ो और सुखदायक योग्य क्रियाओंको करो ।।१५००-१५०२।। १ बैठक करे पसारे पाय ग० * छन्द १४९६ के आगे न० और स० प्रतिमें निम्न छन्द अधिक है संख सीप कौडी ले जाय, कर पदकी अंगुरि चटकाय । और पान चरनन दबवाय, बैठक करै पसारे पाय ॥ २ शबद निशंक हीण ऊचरे । न० सो ही हीन क्रिया परिहरे स० Jain Education International For Private & Personal Use Only २३७ www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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