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________________ क्रियाकोष २३५ श्री जिन चैत्यालय विषै, क्रिया हीण हैं जेहि । कियै पाप अति ऊपजै, ते सुणि भवि तजि देहि ॥१४८०॥ छन्द चाल मुखतै खंखार निकारै, हास्यादि केलि विसतारै । पुनि विविध कला जु बणावै, पात्रादिक नृत्य करावै ॥१४८१॥ अरु कलह करै रिस धारी, खैहै तंबोल सुपारी । जल पीवै कुरला डारे, पंखातै पवन हिंडारै ॥१४८२॥ गारी वच हीण उचरिहै, मल मूत्र वाव निस्सरिहै । कर पद धोवै अरु न्हावै, सिर डाढी कच उतरावै ॥१४८३॥ कर पगके नख ही लिवावै, कायातें रुधिर कडावै । औषध बणवावै खांही, नांखे पसेव उतरांही॥१४८४॥ तन व्रणकी तुचा उतरावै, कर वमन कफादिक डारै । दांतन पुनि सिलक करांही, हालै दंतन उपराही ॥१४८५॥ बांधै चौपद तन धार, पनि करिहै जहाँ आहार । आँखिनको गीडहि डारै, कर पग नख मैलि उतारै ॥१४८६॥ जहँ कंठ कान सिर जानी, नासाको मैल डरानी । जो वस्तु रसोई लाई, बाँटै जिनि थानक जाई॥१४८७॥ श्री चैत्यालयमें जिन हीन क्रियाओंके करनेसे अत्यधिक पाप उत्पन्न होता है उन्हें सुनकर हे भव्यजनों ! उनका त्याग करो ॥१४८०॥ ___ मुखसे खकार निकाले, हास्यादिक क्रीडाका विस्तार करे, नाना प्रकारकी कला बनाकर पात्रादिकसे नृत्य करावे, क्रुद्ध होकर कलह करे, पान सुपारी खावे, पानी पीवे, कुरला डाले, पंखेसे हवा करे, गाली आदि हीन वचनोंका उच्चारण करे, मल मूत्र करे, अधोवायुको छोड़े, हाथ पैर धोवे, स्नान करे, शिर तथा दाढीके बाल उतरावे, हाथ-पैरके नाखून कटवावे, शरीरमेंसे रुधिर निकलवावे, औषध बनवाकर खावे, पसीना आदि पुछवावे, शरीरके घावकी चमड़ी निकलवावे, वमन कर कफादिकको डाले, दाँतों पर रजतपत्रक आदि चढ़वावे, दाँत उखड़वा कर डाले, गाय, भैंस आदि चौपायोंको बाँधे, आहार करे, आँखोंका कीचड़ डाले, हाथपैरके नखोंका मैल निकलवावे, कण्ठ कान शिर और नाकका मल डाले, जिनमंदिरमें जाकर रसोई संबंधी वस्तुओंको बाँटे ॥१४८१-१४८७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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