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श्री कवि किशनसिंह विरचित 'तीर्थंकर मुख थकी दिव्य ध्वनि तै जिनवाणी, स्यादवादमय खिरी सप्तभंगी सुखदानी: ताकौ लहि परसाद गये शिवथानक मुनिवर,
अजुहौ याहि सहाय पाय तिरिहै भवि धरि उर; तसु रचिय देव गणधरनि जो द्वादशांग विधि श्रुत धरी । भारती जगत जयवंत निति, सकल संघ मंगल करी ॥१४७७॥
अठाईस गुण मूल लाख चौरासी उत्तर धरै, करै तप अति घोर शुद्ध आतम अनुभो परै; ग्रीषम पावस सीत सहै बाईस परीसह,
भवि लावहि शिवपंथ ज्ञान द्रग चरण गरीसह; निज तिरहि आन तारहि सदा इहै बिरद तिनपै खरौ । ऐसे मुनीश जयवंत जग सकल संघ मंगल करौ ॥१४७८॥ चैत्यालयमें लगनेवाली चौरासी आसातनाओंका वर्णन
दोहा श्री जिन श्रुत गुरुको नमों, त्रिविधि शुद्धता ठानि ।
चौरासी आसातना, कहूं प्रत्येक बखानि ॥१४७९॥ तीर्थंकरके मुखसे दिव्यध्वनिके रूपमें जो जिनवाणी प्रगट हुई है वह स्याद्वादमय है तथा सुखदायक है उसके प्रसादसे ही अतीतकालमें मुनिवर शिव-स्थान-मोक्षको प्राप्त हुए हैं, वर्तमानमें प्राप्त हो रहे हैं और आगे भी उसकी सहायतासे ही संसारसागरको पार करेंगे। श्रुतधारी गणधर देवोंने उसी जिनवाणीसे द्वादशांगकी रचना की थी। वह भारती-जिनवाणी जगतमें जयवंत रहे और सकल संघको नित्य ही मंगलकारी हो ॥१४७७॥ __ जो अट्ठाईस मूल गुणों और चौरासी लाख उत्तर गुणोंको धारण करते हैं, अति घोर तप करते हैं, शुद्धात्माके अनुभवमें तत्पर रहते हैं, ग्रीष्म, वर्षा और शीतकालमें बाईस परिषह सहन करते हैं, जो भव्यजीवोंको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी मोक्षमार्ग प्राप्त कराते हैं, स्वयं तिरते हैं, और अन्य जीवोंको तारते हैं, यही जिनका उत्तम बिरुद है ऐसे मुनिराज जगतमें जयवंत रहे तथा सकल संघका मंगल करें॥१४७८॥
चैत्यालयमें लगने वाली चौरासी आसातनाओंका वर्णन श्री जिनदेव, शास्त्र और गुरुको नमस्कार कर मन, वचन, कायकी शुद्धतापूर्वक चौरासी आसातनाओंका पृथक् पृथक् वर्णन करता हूँ॥१४७९॥
१ घ० प्रतिमें गाथा १४७७-१४७८ में क्रम व्यत्यय (क्रमभंग) हैं।
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