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श्री कवि किशनसिंह विरचित
दोहा वसन पहरि भोजन करै, सो जिनपूजा मांहि । तनु धारे अघ ऊपजै, यामैं संशय नाहि ॥१४५३॥
कुण्डलिया कबहु संधित वसनतें, भगतिवंत नर जोय ।
मन वच तन निहचै इहै, पूजा करै न सोय ॥ पूजा करै न सोय, दगध फटियौ है जातै । पर्यो अवरनि तणो, कटिहि बंधियो पुनि तातै ॥ करी वृद्ध लघुनीति, धारि सेई तिय जब ही । करहि नाहि भवि सेव, वसन संधित ते कब ही ॥१४५४॥
चौपाई
जो भविजन जिनपूजा रचै, प्रतिमा परसि पखालहि सचै । मौन सहित मुख कपडो करे, विनय विवेक हरष चित धरै॥१४५५॥ पूजाकी विधि ऊपर कही, करितें पुण्य ऊपजै सही । नरको करवो पूजा 'जथा, आगममें भाषी सर्वथा ॥१४५६॥ जिनपूजा वनिता जो करै, सो ऐसी विधिको २अनुसरै ।
प्रतिमा-भीटण नाहीं जोग, ऐसे कहे सयाणे लोग ॥१४५७॥ जिन वस्त्रोंको पहिनकर भोजन किया है उन्हीं वस्त्रोंको यदि जिनपूजाके समय कोई शरीर पर धारण करता है तो उससे पाप उत्पन्न होता है, इसमें संशय नहीं है ॥१४५३॥
जो मनुष्य भक्तिवंत है तथा मन वचन कायसे जिनपूजा करनेका निश्चय रखते हैं वे भी संधित-अशुद्ध वस्त्रोंसे जिनपूजा नहीं करते हैं। जो वस्त्र जल गया हो, फट गया हो, दूसरोंका पहिना हुआ हो अथवा स्वयंने भी पहले जिसे कमरसे बाँध लिया हो, दीर्घशंका, लघुशंका और स्त्रीसेवन करने वाले मनुष्यने जिसे पहिन रक्खा हो वह संधित वस्त्र कहलाता है। ऐसे वस्त्रसे जिनपूजा कभी नहीं करना चाहिये ॥१४५४॥
जो भव्यजीव जिनपूजा करते हैं तथा प्रतिमाका स्पर्श कर प्रक्षाल करते हैं वे मौन सहित, मुख पर कपड़ा बाँधकर विनय, विवेक और हर्षपूर्वक करते हैं ॥१४५५॥ पूजाकी जो विधि ऊपर कही गई है तदनुसार पूजा करनेसे सही पुण्योपार्जन होता है। मनुष्य जिनपूजा करे' यह बात आगममें पूर्णरूपसे कही गई है। यदि कोई स्त्री जिनपूजा करती है तो वह भी इसी विधिसे करे। विशेष यह है कि उसे प्रतिमाका स्पर्श करना योग्य नहीं है ऐसा सयाने-ज्ञानी जन कहते हैं ॥१४५६-१४५७॥
१ तथा ग० २ संचरे स०
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