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क्रियाकोष
जिन वाम अंग धरि धूप दाह, खेवै सुगंध शुभ अगर ताह । अरहंत दक्षिणा दिसि जु एह, अति ही मनोज्ञ दीपक धरेह ॥१४४७॥
जप ध्यान धरै अतिमन लगाय, जिनदक्षिण भुज दिसि मौन लाइ । प्रतिमा वंदन मनवचनकाय, करि दक्षिण भुज दिसि सीस नाय || १४४८॥ इह भांति करिय पूजा प्रवीण, उपजै बहु पुन्य रु पाप क्षीण । पूजामांहे नहि जोगि दर्व, तिनि नाम बखानै सुनहु सर्व || १४४९ ॥ द्रुतविलम्बित छन्द
प्रथम ही पृथ्वी परि जो धर्यो, अरु कदा करतें खिसिके पर्यो । जुगल पानि लागि गयो जदा, दरव सों जिन-पूजन ना वदा || १४५०॥ करिन तै फिरियो सिर ऊपरै, वसन हीण मलीन मही धरै । कटि तलै परसै जब अंग ही, दरव सो जिनपूजन लौं नहीं ॥ १४५१॥
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बहुजनां करतै कर संचर्यो, मनुज दुष्टनि भीटि करै धर्यो । त्रसत दुःखित दर्व सबै तजौ, भगतितैं जिन पूज सदा सजौ ॥ १४५२॥
जिन प्रतिमाकी बाई ओर धूपदान रखकर अगरुचन्दनका सुगन्धित धूप खेना चाहिये, दाहिनी ओर मनोहर दीपक रखना चाहिये, जिन प्रतिमाके दक्षिण भागमें मौनसे स्थित हो मन लगाकर जप वा ध्यान करना चाहिये तथा मन वचन कायासे शिर झुकाकर नमस्कार करना चाहिये ।। १४४७-१४४८ || इस प्रकार उत्तम पुरुष पूजा करते हैं । पूजाके फलस्वरूप बहुत पुण्यका उपार्जन और पापका क्षय होता है। अब आगे पूजामें जो द्रव्य योग्य नहीं है उन सबका वर्णन करते हैं । १४४९॥
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जो द्रव्य पृथिवी पर रक्खा हो अथवा हाथसे छूटकर नीचे गिर गया हो, अथवा दोनों पैरोंसे जिसका स्पर्श हो गया हो, ऐसे द्रव्यसे भगवानकी पूजा कभी नहीं करनी चाहिये || १४५० || जो हाथ शिर पर फेरे जाते हैं उनसे पूजा नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि पूजा करते समय शिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिये । फटे, ओछे, मलिन तथा भूमि पर पड़े वस्त्र पहिनकर पूजा नहीं करना चाहिये । जिस द्रव्यका कमरसे नीचेके अंगोंका स्पर्श हो गया हो उस द्रव्यसे जिनपूजन नहीं करना चाहिये। जो द्रव्य बहुत जनोंके हाथोंमें संचार कर चुका है, दुष्ट मनुष्योंने हाथोंसे जिसका स्पर्श किया है, और जो दीन दुःखी जीवोंसे लिया गया है, उस द्रव्यका जिनपूजामें परित्याग करना चाहिये । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवानकी पूजा सदा भक्तिपूर्वक करना चाहिये ।। १४५१-१४५२।।
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१ दरव सो जिनपूज नहीं कदा ग० २ बहुत जन करतें जो संचरे, मनुज दुष्ट भेंटि जु कर धरे । स० ३. वसन दूषण द्रव्य सबै तजे स०
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