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________________ क्रियाकोष दोहा एह कथन सुनि भविकजन, करि चितमें निरधार । कथित आन मत दान जे, तजहु न लावौ बार || १४०७ ॥ पाप बढावन दुखकरन, भव भटकावनहार । जास हृदय मत जैन दृढ, त्यागै जानि असार || १४०८ ॥ इति नवग्रह शांति विधि निज तन संबंधी क्रियाका कथन २२३ चौपाई निज तन संबंधी जे क्रिया, करहु भव्य तामें दे हिया । शयन थकी जब उठे सवार, प्रथमहि पढै मंत्र नवकार || १४०९॥ प्रासुक जल भाजन करमहि, त्रस - भूषित जो भूमि तजाहि । वृद्धिनीतिका जैहै जबै, अवर वसन तन पहरै तबै ॥ १४१० ॥ नजरि निहारि निहारि करंत, जीवदया मनमांहि धरंत । होत निहार पछै जल लेइ, वामा करतै शौच करेइ ॥ १४११॥ फिरि माटी वामा कर मांहि, वार तीन ले धोवै ताहि । अर तहतै आवै कर करी, वस्त्रादिक सपरस परिहरी ॥१४१२॥ कविवर किशनसिंह कहते हैं कि यह कथन सुनकर हे भव्यजनों ! मनमें निश्चय करो तथा अन्य मतमें कहे गये कुदानोंको छोड़ो, इसमें विलम्ब मत करो। ये कुदान पापको बढ़ानेवाले हैं, दुःखको करने वाले हैं और संसारमें भ्रमण करानेवाले हैं। जिसका हृदय समीचीन जैनधर्ममें दृढ़ है वह इन सबको निःसार जानकर छोड़ देता है ।। १४०७-१४०८।। यह नवग्रह शांतिकी विधि कही । अब निज शरीर संबंधी क्रियाओंका कथन करता हूँ । हे भव्यजनों ! निज शरीर संबंधी जो क्रियाएँ हैं उन्हें ध्यानपूर्वक करो । प्रातःकाल जब सोनेसे उठते हैं तब सबसे पहले नमस्कार मन्त्र पढ़ना चाहिये । पश्चात् प्रासुक जलका पात्र हाथमें लेकर शौच क्रियाके लिये जावे । जो भूमि त्रस जीवोंसे युक्त हो उसे छोड़ देवे और शौचक्रियाके लिये जाते समय दूसरे वस्त्र धारण करे । निहार करते समय इस ओर दृष्टि रक्खे कि किसी जीवका विघात तो नहीं हो रहा है ? जीवदयाका भाव मनमें रखना चाहिये । निहार होनेके पश्चात् जल लेकर बाये हाथसे शुद्धि करना चाहिये । पश्चात् मिट्टीसे बाये हाथको तीन बार धोना चाहिये। पश्चात् वस्त्र-परिवर्तन करना चाहिये ।।१४०९-१४१२।। हाथ धोनेके लिये ईंटका चूरा, पादमर्दित धूलि, बालू अथवा भस्मका उपयोग करे। पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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