SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ श्री कवि किशनसिंह विरचित भरतमांहि चहुँ ऐरावतमें ना कही, ऐरावत है च्यारि भरतपै ए नहीं; दोय दोय दुहुँ थान होय तो नहिं मनै, इहै ग्रहणकी रीत अनादि थकी बने ॥१४०१॥ उक्तं च गाथा त्रैलोक्यसारे नेमिचंद-सिद्धांति-कृतेराहु अरिद्वविमाणा किंचूणा किं पि जोयणं अधोगंता । छम्मासे पव्वन्ते चन्द रवी छादयंति कमे ॥१४०२॥ छंद चाल शशि राहु केतु रवि जाण, आछादतु है जु विमान । विपरीत चाल षट् मास, पावत है जब आकास ॥१४०३॥ चार्यो सुरपदके धार, तिहके कछु नहि व्यापार । देणो लेहणो को करिहै, फिरि है जोजन अंतरिहै ॥१४०४॥ चहूँको मिलिवो नहि कबही, निज थानके साहिब सब ही । औरनिको दीयो दान, लहैणी नहि उतरै आन ॥१४०५॥ शशि राहु चाल इक सारी, शशि बढे घटै निरधारी । षट् मास बिना लहि दाबे, रविको नहि केतु दबावे ॥१४०६॥ हो और भरतमें न हो, यह नहीं हो सकता, परन्तु भरत और ऐरावत-दोनों स्थानोंमें दो दो की संख्यामें हों, यह कहा गया है । ग्रहणकी यह रीति अनादिसे चली आ रही हैं ॥१३९९-१४०१॥ जैसा कि नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकृत त्रिलोकसारकी ३३९ वीं गाथामें कहा गया है : राहु और अरिष्ट (केतु)के विमानोंका विस्तार कुछ कम एक योजन प्रमाण है। इन दोनोंके विमान चन्द्र सूर्यके विमानोंके नीचे गमन करते हैं और दोनों छह मास बाद पर्वके अन्तमें (पूर्णिमा और अमावसको) क्रमसे चन्द्र और सूर्यको आच्छादित करते हैं ॥१४०२॥ राहु चन्द्रमाके विमानको और केतु सूर्यके विमानको आच्छादित करता है। आकाशमें छह माहके बाद इनकी चाल परिवर्तित होती हैं। चन्द्र, राहु, सूर्य और केतु ये चारों ही देवपदके धारक हैं। इनके ऊपर ग्रहण संबंधी कोई व्यापार नहीं होता, फिर देना लेना कौन करता है ? एक योजनके अन्तरसे इनका भ्रमण होता है ॥१४०३-१४०४॥ इन चारोंका मिलना कभी नहीं होता है, सब अपने अपने स्थान पर ही विद्यमान रहते हैं। अन्य मनुष्योंको दिया दान इनको प्राप्त हो, यह समझमें नहीं आता। चन्द्रमा और राहुकी चाल एक साथ होती है उसीसे चन्द्रमा घटता-बढ़ता दिखाई देता है। छह माहके बिना न तो राहु चन्द्रमाको दाबता है और न ही केतु सूर्यको दाबता है ॥१४०५-१४०६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy