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क्रियाकोष
पखि अंधियारे मांहि कला शशिकी सही, एक दबावति जाय अमावसलों कही; शुकल पक्ष इक कला उघरती जाय है, पूरणमासी दिन शशि निरमल थाय है ॥१३९७॥ नित्य ग्रह इह होय न माने जन सबै, पून्युं दिन विपरीति राहु उलटै जबै; दावे शशि जब दान ग्रहण तब ठानही, जिनमतमें सो दान कबहूँ न बखानही ॥१३९८॥ रवि शशि चार्यो तणौ ग्रहण चतुं जानियो, ऐरावत अरु भरत मांहि परमानियो; छठै महीने अंतर पडे आकाशमें, फेरी चालकूँ हैं दबावै तासमें ॥१३९९||
तिह विमानकी छाया अवर न मानिये, जिन मारगके सूत्रनि एम बखानिये;
भरतमांहि इक ऐरावतमें तीन ही,
इक ऐरावतमांहि भरत तिहुँ ही लही ॥ १४००॥
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कृष्णपक्षमें राहुका विमान अमावस्या तक प्रतिदिन चंद्रमाकी एक-एक कलाको दबाता जाता है और शुक्लपक्षमें एक एक कला प्रगट होती जाती है, इस तरह पूर्णिमाके दिन चन्द्रमा अत्यन्त निर्मल हो जाता है ॥१३९७||
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यहाँ नित्य तो ग्रहोंका मिलन होता नहीं है । परन्तु पूर्णिमाके दिन जब राहु ग्रह वापिस लौटकर चन्द्रमाको दबाता है अर्थात् आच्छादित करता है तब चन्द्रग्रहण होता है उस दिन लोग विपरीत दान देते हैं। जिनमतमें ऐसे विपरीत दानका कथन नहीं है ।। १३९८॥
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दो सूर्य दो चन्द्रमा इन चारों पर ग्रहण नहीं होता है। ऐरावत और भरत क्षेत्रमें ऐसा जानना चाहिये । छठवे महीनेके बाद आकाशमें अन्तर पड़ता है जब कि वे सूर्य चन्द्रमा अपनी चालको बदलते हैं। उस समय राहु केतुके विमानकी छाया चन्द्र सूर्य पर पड़ती हैं, वह छाया ही ग्रहण है, अन्य कुछ नहीं हैं। जिनमार्गके शास्त्रमें तो ऐसा माना गया है। दो सूर्य और दो चन्द्र - दोनोंके चार ग्रहण होते हैं । इन चारमेंसे भरतमें एक तथा ऐरावतमें तीन और ऐरावतमें एक तथा भरतमें तीन हो सकते हैं। भरतमें चारों हों और ऐरावतमें न हो तथा ऐरावतमें चारों
१ दावे शशिकी कला ग्रहण तब मान ही ।
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