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श्री कवि किशनसिंह विरचित
नवग्रह सांतिह काज जिनेश्वर सामणी, खडो होय सिर नाय करै सो थुति घणी; बार एक सो आठ जाप तिनको जपै, ग्रह नक्षत्रकी बात कर्म बहुविधि खपै ॥१३९३॥
भद्रबाहु इम कही तासु ऊपरि भणी, जो पूरव विद्यानुवाद श्रुति ते मणी; इह विधि नवग्रह शान्ति बखाणी जैनमें, करिव श्लोक अनुसार किसनसिंघ पै नमै ॥१३९४॥ आन धरमके मांहि ग्रहन इम कहत हैं, विपरीत बुद्धि उपाय न मारग लहत है; चंडाल के दान दिया शुद्धता, कल्प्यो इम विपरीत ठाणि मति मुग्धता || १३९५|| चंद दोय रवि दोय जिनागममें कहे, मेरु सुदरसन गिरिद सदा फिरते रहें; शशि विमान तल राहु एक योजन वहै, रविके नीचे केतु एम भ्रमतो रहै ॥१३९६॥
नवग्रहकी शांति के लिये जिनेश्वरके सामने खड़े होकर तथा शिर नवाकर अत्यधिक स्तुति करे । एकसौ आठ बार उनका जाप करे। ऐसा करनेसे ग्रह नक्षत्रकी तो बात ही क्या है, बहुत प्रकारके कर्म भी नष्ट हो जाते हैं ।। १३९३ ॥
कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हमने जो ऊपर कहा है वह भद्रबाहुके कहे अनुसार कहा है । इसके पूर्व विद्यानुवाद शास्त्रमें भी ऐसा कहा गया है। जैनियोंमें नव ग्रहशांतिकी यही विधि कही गई है इसलिये भद्रबाहुके श्लोकानुसार यही विधि करनी चाहिये ||१३९४॥
अन्य धर्मोंमें ग्रहशांतिका उपाय इस प्रकार कहते हैं सो विपरीत बुद्धिवाले यथार्थ मार्गको प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उनके यहाँ लिखा है कि चाण्डालोंको दान देनेसे शुद्धता होती है सो विपरीत बुद्धिवालोंने अज्ञानवश विपरीत कल्पना कर रक्खी है ।। १३९५ ॥
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जिनागममें कहा है कि दो सूर्य और दो चन्द्रमा सुदर्शन मेरुके चारों ओर निरन्तर परिभ्रमण करते रहते हैं । चन्द्रमाके विमानके नीचे एक योजन विस्तारवाला राहुका विमान घूमता है और सूर्यविमानके नीचे एक योजन विस्तृत केतु भ्रमण करता है | १३९६॥
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