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श्री कवि किशनसिंह विरचित कर धोवणको ईंटा खोह, लेह तथा पदमर्दित सोह । बालू अर भसमी करि धारि, हाथ धोई नागर नर-नारि ॥१४१३॥ वांमो हाथ फेरि तिहुं बार, धोवै जुदो गारि करि धार । हाथ दाहिणो हुँ तिहुं बार, धोवै जुदो वहै परकार ॥१४१४॥ माटी ले दुहं हाथ मिलाय, धोवै तीन बार मन लाय । पच्छिम दिशि मुख करिकै सोइ, दातुण करिय विवेकी जोइ ॥१४१५॥ स्नान करन जल थोडो नाखि, कीजे इह जिन आगम साखि । करुणा कर मनमांहि विचारि, कारिज करिये करुणा धारि ॥१४१६॥ प्रथमहि मही देखिये नैन, जहँ त्रस जीव न लहै अचैन । रहै नहीं सरदी बहु वार, स्नान तहाँ करिहै बुध धार ॥१४१७॥ पूरव दिशि सन्मुख मुख करै, उजरै वसन उतर दिशि धरै । जीमत वार धोवती धारि, अवर सकल ही वसन उतारि ॥१४१८॥ सिर डाढी सँवरावे जबै, स्नान करै किरिया जुत तबै ।
लोकाचार उठै किहि तणै, तबही स्नान करत ही बणै ॥१४१९॥ बायाँ और दायाँ दोनों हाथोंको अलग अलग मिट्टीसे तीन बार धोवे और फिर दोनों हाथ मिलाकर तीन बार धोवे । अर्थात् मिट्टी लेकर दोनों हाथ मिलाकर अच्छी तरह तीन बार धोवे। इसके पश्चात् पश्चिम दिशाकी ओर मुख कर विवेकपूर्वक दातौन करे। विवेकका तात्पर्य यह है कि दातौनके जलसे किसी जीवका विघात न हो, इस बातका ध्यान रक्खे ॥१४१३-१४१५॥
स्नान करनेके लिये जल थोड़ा खर्च करना चाहिये, यह जिनागमका उपदेश है। मनमें करुणाका विचार कर करुणापूर्वक-दयापूर्वक कार्य करना चाहिये। स्नान करनेके पहले भूमिको नेत्रोंसे अच्छी तरह देखे। जहाँ त्रस जीवोंको बाधा न हो, और जहाँ स्नान करनेकी सरदी आर्द्रता बहुत समय तक न रहे वहाँ विचारपूर्वक स्नान करना चाहिये। स्नान करते समय पूर्व दिशाको मुख करे और उजले-स्वच्छ वस्त्र उत्तर दिशाकी ओर मुख कर पहिने। भोजन करते समय मात्र धोती धारण करना चाहिये, शेष सब वस्त्र उतारकर अलग रख देना चाहिये ॥१४१६-१४१८॥
शिर और दाढ़ीके बाल जब संभलवावे अर्थात् जब क्षौरकर्म करावे तब क्रियापूर्वक स्नान करे। लोकाचारके प्रसंगमें जब किसीके यहाँ उठावनाके लिये जाना हो तब स्नान करना उचित ही है ॥१४१९॥
जो विवेकी जन हैं वे स्त्री सेवनके पश्चात् स्नान करते हैं, और शयन पृथक् शय्या पर १ माटि न० २ बनवावै स०
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