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क्रियाकोष
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यातै जैन धरम प्रतिपाल, जे शुभ क्रिया अपूठी चाल । तिन हिं भूलि मति करियो कोय, जे आगम दृढ हिरदै होय ॥१२९९॥ पूरी आयु करिवि जिय मरै, ता पीछे जैनी इम करै । घडी दोयमें भूमि मसान, ले पहुंचे परिजन सब जान ॥१३००॥ पीछे तास कलेवर मांहि, त्रस अनेक उपजै सक नांहि । मही जीव बिन लखि जिह थान, सूकौ प्रासुक ईंधण आन ॥१३०१॥ दगध करिवि आवै निज गेह, उसनोदकतें स्नान करेह । वासर तीन बीति है जबै, कछु इक शोक मिटणको तबै ॥१३०२॥ स्नान करिवि आवै जिन गेह, दर्शन कर निज घर पहुंचेह । निज कुलके मानुष जे थाय, ताके घरते असन लहाय ॥१३०३॥ दिन द्वादश बीते हैं जबे, जिनमंदिर इम करिहै तबे । अष्ट द्रव्यतै पूज रचाय, गीत नृत्य वाजिन बजाय ।।१३०४॥ शक्तिजोग उपकरण कराय, चंदोवादिक तासु चढाय ।
करिवि महोछव इह विधि सार, पात्रदान दे हरष अपार ॥१३०५॥ जनित बड़ी भारी भूल है। ग्रन्थकार कहते हैं कि विपरीत क्रियाओंके करनेसे पाप ही होता है जो दुर्गतिके दुःख और संतापका कारण होता है ।।१२९८॥ इसलिये जो जैनधर्मके पालने वाले हैं वे शुभ क्रियाएँ ही करे यही वास्तविक रीति है। जो आगमका दृढ़ श्रद्धानी है उसे भूल कर भी विपरीत क्रियाएँ नहीं करनी चाहिये ॥१२९९।।
जब यह जीव आयु पूर्ण कर मरता है तब उसके मरनेके बाद जैनधर्मके धारक इस प्रकारकी विधि करते हैं-दो घड़ीके भीतर परिवारके सब लोग एकत्रित होकर मृतकको स्मशानमें ले जाते हैं क्योंकि दो घड़ीके बाद उस कलेवरमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। स्मशानमें जो भूमि जीव रहित हो वहाँ सूखा-प्रासुक ईंधन एकत्रित कर दाह क्रिया करते हैं
और पश्चात् अपने घर आकर प्रासुक पानीसे स्नान करते हैं । जब तीन दिन बीत जाते हैं और शोक कुछ कम हो जाता है तब स्नान कर जिनमन्दिर जाते हैं और दर्शन कर अपने घर आते हैं। कुटुम्बके जो लोग हैं वे उसके घर भोजन करते हैं। जब बारह दिन बीत जाते हैं तब जिनमंदिरमें यह विधि करते हैं-अष्टद्रव्यसे पूजा रचाते हैं, बाजे बजाकर गीत नृत्य आदि करते हैं, शक्तिके अनुसार उपकरण तथा चंदोवा आदि चढ़ाते हैं। इस तरह महोत्सव पूर्वक पात्रदान देकर अत्यन्त हर्षित होते हैं ।।१३००-१३०५॥ कुटुम्ब तथा नगरके अन्य जनोंको निमंत्रित कर यथाशक्ति उन्हें जिमाते हैं। इस तरह शोकको कम करते हैं। कुटुम्ब-परिवारको कितना क्या सूतक होता है ? यह सब सूतकविधिमें प्रसिद्ध है। भव्यजीवोंको उसीके अनुसार कार्य करना
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