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________________ २०४ श्री कवि किशनसिंह विरचित १जिह थानक मूवो जन होय, लीपै ठाम करे सुधि सोय । फेरे ता ऊपरि के रडी, ए मिथ्यात क्रिया अति बडी ॥१२९१॥ ए सब क्रिया जैनमत मांहि, निंद सकल भाषै सक नाहि । अवर क्रिया जे खोटी होय, सकल त्यागिये बुधजन सोय ॥१२९२॥ जब जिय निज तजिकै परजाय, उपजै दूजी गतिमें जाय । इक दुय तीन समयके मांहि, लेइ अहार तहां सक नांहि ॥१२९३॥ रगति माफिक पर्यापति धरै, अन्तमहरत परो करै । जिस गति ही मैं मगन रहाय, पिछलो भव कुण याद कराय ॥१२९४॥ पिंड मेल्हि तिहि कारण लोय, धोक दिये जै लै नहि सोय । पाणी देवेकी को कहै, मूएको न कबहुं पहुंचिहै ॥१२९५॥ भात सराई काकै हेत, वह तो आय आहार न लेत । जाकै निमित्त काढिये गास, पहुंचै वहै यहै मन आस ॥१२९६॥ सो जाणै मूरखकी वाणि, मूवो गास लेय नहि आणि । गउ के रडी गास ही खाहि, अरे मूढ किम पहुंचै ताहि ॥१२९७॥ मृत्यक भूमि फिरै के रडी, सो मिथ्यात भूल अति बडी । उल्टी किरियातें है पाप, जो दुरगति दुख लहै संताप ॥१२९८॥ कही गई है इसमें संदेह नहीं है। इनके सिवाय और भी जो खोटी क्रियाएँ हैं, उन सबका ज्ञानी जनोंको त्याग करना चाहिये ।।१२९१-१२९२॥ ___जब जीव अपनी पर्याय छोड़ कर दूसरी गतिमें चला जाता है और एक दो या तीन समयके भीतर नियमसे आहार ग्रहण कर लेता है तथा गतिके अनुसार अन्तर्मुहूर्तमें ही सब पर्याप्तियाँ पूरी कर लेता है एवं जिस गतिमें जाता है उसी गतिमें मग्न हो जाता है, तब पिछले भवमें, मैं कौन था, इसका स्मरण भी नहीं करता ॥१२९३-१२९४॥ इस प्रकार मृतकके लिये पिण्डभोजनके ग्रास एकत्रित कर देना, तथा उसे धोक देना यह सब मृतकको प्राप्त नहीं होता। जो मृतकके लिये पानी देनेकी बात कहते हैं उनका वह पानी मृतकके पास कभी नहीं पहुँचता । भात और सुराही किसके लिये रक्खी जाती है ? क्योंकि मृतक तो आकर आहार नहीं लेता। "जिसके निमित्त ग्रास निकाला जाता है वह उसीके पास जाता है, मृतक मनमें उसकी आशा लगाये रहता है" ऐसा मूर्योका कहना है क्योंकि मृतक मनुष्य आकर ग्रास नहीं लेता। उस ग्रासको तो गाय एवं बछड़े ही खाते हैं। ग्रंथकार कहते हैं कि हे मूर्ख ! वह मृतकके पास कैसे पहुँच सकेगा? ॥१२९५-१२९७।। मृतककी भूमि पर जो परिक्रमा की जाती है वह मिथ्यात्व १. जिह थानक जु मुवो नर होय स. २. गति माफिक पर्याय ते धरै स. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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