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________________ २०२ श्री कवि किशनसिंह विरचित जैनी श्रावक नाम धराय, हाड रु लावें तिह पितु माय । धन्य जनम माने जग आप, गंगा घालै माय रु बाप ॥१२७९॥ आनमती परशंसा करें, तिन वच सुनि चित हरषहि धरें। मूढ धरम अघ भेद न लहै, बातुल सम जिम तिम सरदहै ॥१२८०॥ पदम द्रह हिमवन ऊपरी, ता द्रहतै गंगा 'नीकरी । विकलत्रय जलमें नहि होय, बहु दिन रहै न उपजे वोय ॥१२८१॥ यातें याकौ जे मतिमान, उत्तम पानी मानै छान । हाड रोम नाखै अघ थाय, अघतें नरकादिक दुख पाय ॥१२८२॥ जिस परजाय तजै ततकाल, और ठाम उपजै दर हाल । हाड रु लाए गंगा माहि, कैसे ताकी गति पलटाहि ॥१२८३॥ जैनी जन तिन शिक्षा एह, जैन विरुद्ध न कीजै तेह । ते करिये नहि परम सुजान, तिम उत्तम गति लहै पयाण ॥१२८४॥ उसके जलसे जिनेन्द्र भगवानका प्रक्षाल करनेकी बात आगममें कही है। जो जैनी 'श्रावक' नाम धारण करके भी उस गंगामें अपने मातापिताकी अस्थियाँ विसर्जित करनेके लिये लाते हैं और अपने जन्मको धन्य मानते हैं उनकी यह अज्ञानकी चेष्टा है ।।१२७८-१२७९॥ अन्य मतावलम्बी अस्थिविसर्जनकी प्रशंसा करते हैं सो उनके वचन सुन कर कोई कोई अज्ञानी जैनी भी चित्तमें हर्षित होकर ऐसा करते हैं सो उनके विषयमें यही कहा जा सकता है कि अज्ञानी लोग धर्म और पापका भेद नहीं जानते, परंतु वातुल-वायुग्रस्त मनुष्यके समान जैसा तैसा श्रद्धान करने लगते हैं ॥१२८०॥ हिमवान पर्वतके ऊपर जो पद्म नामका ह्रद है उसीसे गंगा नदी निकली है। उस गंगाके जलको बहुत दिन तक रखने पर भी उसमें विकलत्रय-त्रस जीव उत्पन्न नहीं होते इसीलिये इसके जलको उत्तम जल माना जाता है ॥१२८१॥ बुद्धिमान मनुष्य छान कर इस जलका उपयोग करते हैं। इस पवित्र जलमें जो हाड़ तथा रोम आदि डालते हैं वे उस पापके फलस्वरूप नरकादिके दुःख प्राप्त करते हैं ।।१२८२।। अन्य मतावलम्बी मानते हैं कि गंगामें हाड़ डालनेसे, जिसके हाड़ हैं उसे सद्गति प्राप्त होती है। इस विषयमें ग्रन्थकार कहते हैं कि जीव, जिस कालमें जिस पर्यायको छोड़ता है वह तत्काल ही नवीन पर्यायमें उत्पन्न हो जाता है। फिर गंगामें हाड़ डालनेसे उसकी गति कैसे परिवर्तित हो सकती है ? जैनी जनोंको यह शिक्षा है कि जिनागमके विरुद्ध जो क्रियाएँ हैं उनका त्याग करे। ऐसा करनेसे ही उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है ॥१२८३-१२८४॥ १ नीसरी स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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