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क्रियाकोष
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चौपाई जात्री दूर दूर का घणा, आवै पायनिमें तिह तणा । जीव वद्ध करि तास चढाय, निहचै ते नर नरकहि जाय ॥१२७२।। कामदेव हणुमंत कुमार, विद्याधर कुलमें अवतार । तीर्थंकर बिनु जग नर जिते, तिह सम रूपवान नहि तिते ॥१२७३॥
बन्दरवंशी खगपति जान, धुजामांहि कपि चिह्न वखान । मात अंजना जाकी जानी, पवनंजय तसु पिता वखानी ॥१२७४॥ दादो खगपति नृप प्रहलाद, जैनधर्म धरि चित अहलाद । पालै देव गुरु श्रुत ठीक, महाशीलधारी तहकीक ॥१२७५॥ हणुकुमार दीक्षा धरि सार, मोक्ष गये सुख लहै अपार । ताको भाषै कपिको रूप, ते पापी पडिहै भवकूप ॥१२७६॥ आनमतीसों कछु न वसाय, जैनी जनसों कहुं समझाय । जिन मारगमें भाष्यों यथा, तिह अनुसार चलो सरवथा ॥१२७७।। गंगा नदी महा सिरदार, जाको जल पवित्र २अधिकार । जिन पखाल पूजा तिह थकी, करिये जिन आगम यों बकी ॥१२७८॥
उनके चरणोंमें दूर दूरसे अनेक यात्री आते हैं और जीवोंका वध कर उन्हें चढ़ाते हैं। कविवर कहते हैं कि ऐसे हिंसक जीव नियमसे नरक जाते हैं ।।१२७२॥ परमार्थसे हणुमंत तो कामदेव पदके धारक थे। विद्याधरोंके वंशमें उनका जन्म हुआ था। संसारमें तीर्थंकरको छोड़ कर अन्य जितने मनुष्य हैं उनका रूप हनुमंतकुमारके समान नहीं होता ॥१२७३।। वे वानरवंशी विद्याधरोंके राजा थे। उनकी ध्वजामें वानरका चिह्न था। अंजना उनकी माता थी, पवनंजय उनके पिता थे, विद्याधरोंके अधिपति प्रह्लाद उनके दादा थे। वे जैनधर्म धारण कर हृदयमें परम हर्षित रहते थे, देव शास्त्र गुरुका ठीक ठीक निर्णय कर उनकी श्रद्धा रखते थे, महा शीलधारी थे॥१२७४-१२७५॥ जो हनुमंतकुमार दिगम्बर दीक्षाको धारण कर मोक्षको प्राप्त हुए तथा अपार सुखके स्थान हुए उन्हें जो वानररूपके धारी कहते हैं वे पापी संसाररूप कूपमें पड़ते हैं ॥१२७६।। ग्रन्थकार किशनसिंहजी कहते हैं कि जो अन्यमतावलम्बी हैं उन पर तो हमारा कुछ वश नहीं चलता; परन्तु जो जैनधर्मके धारक हैं उन्हें समझाकर कहता हूँ कि हे भव्यजनों! जिनमार्गमें हनुमंतकुमारका जैसा रूप कहा गया है उसीके अनुसार मानो और उसी प्रकार चलो ।।१२७७।।
आगे गंगा नदीमें अस्थि विसर्जनका कथन करते हैं : गंगा नदी सब नदियोंमें श्रेष्ठ नदी है १ वानरवंशी स० २ अति सार स०
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