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क्रियाकोष
वसु सरद रहै नहि जातै, बीखरि वा नांखै यातैं । सांझे जो दालि पिसावै, वासन भरि राति रखावै ॥ १२४३॥ 'उपसावे अधिक खटावै, उपजै त्रस पार न फुनि लूण मसाला डारै, करतै मसले बहु इम जीवनि नास करंती, मनमांही हरष धरंती । निज पर तिय बहुत बुलावै, तिनपैं ते बडी दिवावै ॥१२४५॥ सो पाप अनेक उपावै, कहते कछु ओर न पावै । करुणा जाके मनि आवे, सो इह विधि बडी निपावे ॥१२४६ ॥
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उन्है जल दालि भिजोवै, प्रासुक जलतैं फिर धोवे । किरियाको दोष न लावै, सो दिनमें कलौ करावे ॥ १२४७॥ ततकाल बडी तसु देह, उपजावे पुण्य न छेह । स्याणों जन अवर अयाणौ, दुहु ब्याह करे इह जाणौ || १२४८॥ किरियामें भेद अपार, इक सुख दे इक दुखकार । जाके करुणा मनमांहीं, अविवेक न क्रिया कराहीं ॥१२४९॥
पावै ।
वारै ॥१२४४॥
रहे । कितनी ही स्त्रियाँ संध्याके समय दाल पिसवाती हैं और उसे बर्तनमें भर कर रात भर रक्खे रहती हैं इससे उसमें खटास आ जाती है तथा अनन्त त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । उस पिसी हुई दालमें नमक तथा मसाला मिला कर हाथसे उसे बार बार मसलती हैं। इस तरह जीवोंका घात करती हुई मनमें हर्षित होती हैं । अपने घर बहुतसी स्त्रियोंको बुलाती हैं और उनसे बड़ियाँ दिलवाती हैं। इस क्रियासे इतना अधिक पापका संचय करती हैं कि कहते हुए उसका अन्त नहीं आता । जिनके मनमें दयाका भाव जाग्रत है वे इस विधिसे बड़ियाँ बनवावें ।।१२४२-१२४६॥
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उष्ण जल-प्रासुक जलमें दालको भिगोवें और प्रासुक जलसे ही धोवें । क्रियाका कोई दोष न लगे इस भावनासे दिनमें ही उसे पिसावे तथा तत्काल ही उसकी बड़ियाँ दिलावें । इस प्रकारकी क्रियासे पुण्यका नाश नहीं होता है । ज्ञानी और अज्ञानी - दोनों ही प्रकारके मनुष्य विवाह रचाते हैं परन्तु उनकी क्रियामें बहुत भेद - अन्तर रहता है । एककी क्रिया सुख देती है और दूसरेकी क्रिया दुःखदायक होती है । तात्पर्य यह है कि जिसके मनमें करुणा - दया रहती है वह अविवेकपूर्ण क्रिया नहीं कराता ॥। १२४७-१२४९॥
छाणा-गोबरके उपलों का गाड़ा यदि आता है तो अज्ञानी जन उसीकी पूजा करते हैं ।
१ उपसावह न० उपजे बहु स०
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