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श्री कवि किशनसिंह विरचित मांडै फिर भीत विनायक, कहि सिद्धि सकल सुखदायक । नर देह वदन तिरयंच, सो तो सिधि देय न रंच ॥१२३६॥ तातै जैनी जो होई, पूजै न विनायक सोई । साजी अवटावै जेह, पापड करणे को तेह ॥१२३७॥ जल तीन चार दिन तांई, राखै नहि संक धराही । वसु पहर गये तिस मांही, सनमूर्छन जे उपजाही ॥१२३८॥ माग्यो घर घर पहुंचावे, बहुतो सो पाप बढावै । वसु जाम मांहि वर नीर, वरतै जे बुद्धि गहीर ॥१२३९॥ उपरांति दोष अति होई, मरयाद तजो मति कोई । अरु बडी करणके तांई, भिजवावै दाल अथाई ॥१२४०॥ सो दाल धोय तुष नाखे, बहु बिरियां लगन न राखै । घटिका दुयमें उसमांहीं, सन्मूर्छन त्रस उपजाहीं ॥१२४१॥ यातें भविजन मन लावे, तसु तुरतहि ताहि सुकावे ।
धोवणको पानी जेह, नाखे बहु जतन करे य॥१२४२॥ पश्चात् दिवाल पर गणेशजीकी स्थापना करते हैं तथा मानते हैं कि ये सिद्धिकारी तथा सकल सुखदायक हैं। परन्तु यह विचार नहीं करते कि गणेशजीका शरीर मनुष्यका है और मुख तिर्यंचका है, ये किस प्रकार सिद्धि दे सकते हैं ? इसलिये जो जैनधर्मके प्रतिपालक हैं वे जैन विनायक-गणधर देवकी उपासना करते हैं। तदनन्तर पापड़ बनवानेके लिये साजी (खार) को ओंटाते हैं और उस साजीके पानीको तीन-चार दिन तक रक्खे रहते हैं, इसमें भय नहीं करते। आठ प्रहर बीत जाने पर उसमें संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। यदि कोई उस साजीके पानीको माँगता है तो उसे घर घर पहुंचाते हैं और बहुत पापका उपार्जन करते हैं। जो बुद्धिमान मनुष्य हैं वे उस साजीके पानीका आठ प्रहर तक ही उपयोग करते हैं क्योंकि उसके बाद उसमें अत्यन्त दोष लगता है। तात्पर्य यह है कि किसीको मर्यादाका भंग नहीं करना चाहिये । बड़ियाँ बनवानेके लिये लोग बहुतसी दाल भिगोते हैं और उस दालको धोकर छिलके निकालते हैं परन्तु बहुत समय तक उसे नहीं रखना चाहिये क्योंकि उसमें दो घड़ीके बाद संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥१२३६-१२४१॥ इसलिये भव्यजनोंका मन यदि बड़ियाँ बनवानेका है तो दालको शीघ्र ही सुखा ले तथा दाल धोनेका पानी बहुत यत्नसे बिखेर दें। पानी बिखेरते समय इस बातका ध्यान रक्खा जावे कि वह जल्दी सूख जावे, उसकी शरद-आर्द्रता न
१ इसके आगे न० प्रतिमें यह पंक्ति अधिक है-पूजै तो महा उतपात, तातें है धर्म विघात ।
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