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________________ क्रियाकोष १९५ श्रुत गुरु पूजै बहु भाई, जिनकी थुतिमें मन लाई । भाषै अति उत्तम बैन, सब जन मनको सुख दैन ॥१२२९॥ दोहा जिन श्रुत गुरु पूजा पढे, आवे अपने गेह । यथा सकति अरथी जनहि, दान हरषतें देय ॥१२३०॥ सनमानै परिवारको, यथायोग्य परवान । जैनी इह विधि पुत्रको, जनम महोच्छो ठाम ॥१२३१॥ आठ वरषलों पुत्र जो, करत पाप विस्तार । तास दोष पितु मातुको, है है फेर न सार ॥१२३२॥ यातें सुनि निज 'कानमें, राखें जे मतिमान । शाल पढावे लाभ लखि, है तब विद्यावान ॥१२३३॥ छन्द चाल जब ब्याह करनकी वार, किरिया जे है अविचार । प्रथमहि जब लगन लिखावै, सज्जन दस बीस बुलावै ॥१२३४॥ चावल दे जिन कर मांहीं, पूजा सब लगन कराही । करि तिलक विदा तिन कीजे, मिथ्यात महा सु गिनीजे ॥१२३५॥ गरज रहे हैं। जिनदेवकी हर्षभावसे उपासना करती हैं, उसीसे अपने जन्मकी सफलता मानती हैं, शास्त्र और गुरुकी भी पूजा करती हैं, जिनेन्द्र देवकी स्तुतिमें मन लगाती हैं, सब मनुष्योंको सुख देने वाले उत्तम वचन बोलती हैं। इस प्रकार देव, शास्त्र, गुरुकी पूजा पढ़ कर अपने घर आती हैं और इच्छुक जनोंको हर्षित होकर शक्तिके अनुसार दान देती हैं ॥१२२८-१२३०॥ अपने परिवारके लोगोंका यथायोग्य सन्मान करती हैं। जैनी, इस प्रकार अपने पुत्रजन्मका महोत्सव करते हैं। आठ वर्षकी अवस्था तक यदि पुत्र कोई पाप करता है तो उसका दोष मातापिताको लगता है इसमें अन्तर नहीं है, इसलिये बुद्धिमान मनुष्य पुत्रको अपने अधिकारमें रखते हैं और लाभ देखकर उसे पढ़ाते हैं जिससे वह विद्यावान बनता है ॥१२३१-१२३३॥ जब विवाह करनेका समय आता है तब कितनी ही क्रियाएँ विचार रहित होती है। जैसे पहली क्रिया है जब लग्न लिखाते हैं तब वे दश बीस सज्जनोंको बुलाते हैं। जिनके हाथमें चावल होता है वे सब लग्नकी पूजा करते हैं, अतिथियोंको तिलक कर विदा करते हैं इसे महान मिथ्यात्व जानना चाहिये ॥१२३४-१२३५॥ १ गोदमें स०, कारमें ग. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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