________________
१८६
श्री कवि किशनसिंह विरचित
सकरांति मकर जब आवे, तब दान देय हरषावे ।। तिल घाणीमांहि भराई, द्विजजनकों देय लुटाई ॥११८१॥ मूलाका पिंड मंगावे, 'ब्राह्मणके घरहि खिनावे । खीचडी बांट हरसावै, गिनहैं हम पुन्य बढावै ॥११८२॥ जहँ त्रस थावर कै नाश, तहँ किम है शुभ परकाश । अति घोर महा मिथ्यात, जैनी न करें ए बात ॥११८३॥ फागुण वदि चौदस दिनको, बारह मासनमें तिनको । शिवरात तणो उपवास, कीए मिथ्या परकास ॥११८४॥ होली जालै जिहि वारै, पूजै सब २भाग निवारै ।। जाको देखन नहि जइये, कर जाप मौन ले रहिये ॥११८५॥ पीछे बह छार उडावे, जलतें खेले मन भावे । छाण्या अणछाण्या ठीक, लंपट न गिने तहकीक ॥११८६॥ करि चरम पोटली डोल, राखै मन करत किलोल । यदवा तदवा मुख भाखे, लघु वृद्ध न शंका राखे ॥११८७॥
जब मकर संक्रान्ति आती है तब लोग हर्षित होकर दान देते हैं। घानीमें तिल भरवा कर ब्राह्मणोंसे उसे लुटवाते हैं। मूलियोंका गट्ठा बुला कर ब्राह्मणोंके घर भिजवाते हैं । खिचड़ी बटवा कर हर्षित होते हैं और ऐसा मानते हैं कि हम पुण्यको बढ़ा रहे हैं। जहाँ त्रस स्थावर जीवोंका घात होता है वहाँ पुण्यका प्रकाश कैसे हो सकता है ? ये कार्य अत्यन्त घोर महा मिथ्यात्वके हैं, जैनी जन ऐसा काम नहीं करते ॥११८१-११८३॥
कितने ही लोग फागुन वदी चौदसको बारह मासोंमें श्रेष्ठ मान कर शिवरात्रिका उपवास करते हैं, उनका यह कार्य मिथ्यात्वको बढ़ाने वाला है ॥११८४॥
जिस समय होली जलती है तब लोग एकत्रित होकर उसकी पूजा करते हैं। परमार्थसे जिसे देखनेके लिये भी नहीं जाना चाहिये, प्रत्युत जाप कर मौनसे रहना चाहिये, उस होलीकी लोग पूजा करते हैं। होली जलनेके पश्चात् उसकी राख उड़ाते हैं, जलसे फाग खेलते हैं, यह पानी छना है या अनछना, इसका विवेक नहीं रखते ॥११८५-११८६॥ पानी चमड़ेकी पोटली (बर्तन) में रखते हैं और मनमें हर्षित होते हुए घूमते हैं। मुखसे जैसे तैसे भद्दे वचन बोलते हैं, छोटे बड़े लोगोंकी कोई शंका (भय) नहीं रखते, परस्पर एक दूसरे पर पानी उछालते हैं, स्त्री
१ वाडवके स० न० २ भाव गमार स० आचार न०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org