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________________ १७६ श्री कवि किशनसिंह विरचित तिह कथन कियो सब पाही, महाधवल थकी सु कहाही । ताकी लखि वा परतीत, पूछो जिनमत बहु रीत ॥१११०।। १जिहनी सांकरी विधि सेती, आगम प्रमाण कहि तेती । जैनी पंडित जु बखानी, परतखि लखिये भवि प्रानी ॥११११॥ प्रतिमा दरसन सम लोक,-मधि अवर न दूजो थोक । प्रतिमा-पूजाके कारक, ते होइ करमतें फारक ॥१११२॥ प्रतिमाकी निन्दा करिहै, ते नरक निगोदहि परिहै ।। प्रावर्तन पंच प्रकार, पूरण करिहै नहि पार ॥१११३॥ श्रावक मत जैन दिगम्बर, कुलधर्म कह्यो जिम जिनवर । मन-वच-क्रम ताहि गहै है, सुर है अनुक्रम शिव पै है॥१११४॥ पूजा जिनप्रतिमा कीजे, पात्रनि चहुँ दान जु दीजै । तप शील भाव-जुत पारै, अरु कुगुरु कुदेवहि टारै ॥१११५॥ बिनु जैन अवर मतवारे, वातुल सम गनिये सारे । गहलौ नर जिम तिम भाखै, कुमती जिम झूठी आखै ॥१११६॥ उसने प्रतिमाकी महिमाका यह कथन किया और कहा कि यह सब महाधवलमें कहा है। उसकी प्रतीति-श्रद्धा देख कर मैंने उससे जिनमतकी बहुत सी बातें पूछी। जितनी सूक्ष्म बातें थी उनका उसने आगम प्रमाण उपदेश दिया। जैनी विद्वान जो व्याख्यान करते हैं उसके साथ इस उपर्युक्त कथनकी भव्यजीव परीक्षा करें ॥११०७-११११॥ प्रतिमा दर्शनके समान लोकमें दूसरा श्रेष्ठ कार्य नहीं है। जो प्रतिमाकी पूजा करते हैं वे सब कर्मोंसे निवृत्त होते हैं ॥१११२॥ जो प्रतिमाकी निन्दा करते हैं वे नरक और निगोद में • पड़ते हैं। पाँच प्रकारके परिवर्तन पूर्ण करते हैं, इनका अन्त नहीं है ॥१११३॥ श्रावकका मत दिगम्बर जैनका कुलधर्म है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। जो मन वचन कायसे उसे ग्रहण करते हैं वे देव होते हैं और अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१११४॥ कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हे भव्यजीवों! तुम जिनप्रतिमाकी पूजा करो, पात्रोंको चार प्रकारका दान दो, तप और शीलका भावसहित पालन करो तथा कुगुरु एवं कुदेवोंको दूर करो॥१११५॥ जैन मतके सिवाय अन्यमतवाले वातुल-वायुग्रस्तके समान हैं। जिस प्रकार ग्रहिल-भूताक्रान्त मनुष्य जैसा तैसा बोलता है उसी प्रकार अन्य मतावलम्बियोंका कथन जैसा तैसा-अप्रामाणिक जानो ॥१११६॥ श्रावकके कुलमें जन्म लेकर जो अज्ञानी जिनधर्मका त्याग करते हैं तथा ढूंढिया मतको १ तिहनी स० न० २ कविवर किशनसिंहके समय महाधवल उपलब्ध नहीं था। इस समय उपलब्ध है परन्तु उसमें इस प्रकारका कोई प्रकरण नहीं हैं। सहदेव ब्राह्मणके कथन पर विश्वास करके ही उन्होंने यह सब लिखा है ऐसा जान पड़ता है। फिर भी सार यह है कि प्रतिमा अत्यन्त पूज्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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