________________
क्रियाकोष
१७७ श्रावक कुल जिहि अवतार, जिन धर्महि तजहि गंवार । ढूंढ्या मतको जो लैहै, ते नरक निगोद परे है॥१११७॥ सांचो झूठो न पिछाणे, अविवेक हियेमें आणे । प्रतिमा-निन्दक जे जीव, तिनको उपदेश गहीव ॥१११८॥ ताके पोते संसार, बाकी कछु वार न पार । चहुँ गति दुख विविध भरन्तो, रुलिहै बहु जोनि धरन्तो ॥१११९॥ यातें जे भविजन धीर, ढूंढामत पाप गहीर । छांडौ लखि अति दुखदाई, निहचै जिनराज दुहाई ॥११२०॥ जिनमत हिरदय अवधारो, जप तप संयम व्रत पारो । तातें सुख लहौ अपार, यामें कछु फेर न सार ॥११२१॥
चौपाई अब कछु क्रियाहीन अति जोर, प्रगट्यो महामिथ्यात अघोर । श्रावक तो कबहूँ नहि करै, आन मती हरषित विस्तरै ॥११२२॥ जैन धरम प्रतिपालक जीव, करहि क्रिया जे हीन सदीव । तिनके सम्बोधनको जान, कहौ क्रिया जे हीन बखान ॥११२३॥ तिनको तजै विवेकी जीव, करत न भववन भ्रमै अतीव ।
अब सुनियो बुधिवन्त विचार, 'क्रिया हीन वरणन विस्तार ॥११२४॥ ग्रहण करते हैं वे नरक और निगोदमें पड़ते हैं ॥१११७॥ जो सत्य और झुठको नहीं पहचानते हैं, जिनके हृदयमें अविवेक छाया हुआ है, तथा जो प्रतिमाकी निन्दा करते हैं ऐसे ढूंढिया लोगोंके उपदेशको जो ग्रहण करते हैं उनका संसार बहुत बाकी है, उसका कुछ अन्त नहीं है। वे चारों गतियोंके नाना दुःखोंको उठाते हुए अनेक योनियोंमें भ्रमण करते हैं। इसलिये जिन भव्यजनोंने ढूंढिया मत ग्रहण कर रक्खा हैं वे उस दुःखदायक धर्मको छोड़ें और जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित धर्मको अंगीकार करें। हृदयमें जिनमतको धारण करें, जप तप संयम और व्रतका पालन करें; इसीसे अपार सुखकी प्राप्ति होगी, इसमें कुछ संशय नहीं है ॥१११८-११२१॥ ____ अब महा मिथ्यात्वके जोरसे कुछ अत्यन्त हीन क्रियाएँ प्रकट हुई हैं। श्रावक जन उन क्रियाओंको नहीं करते परन्तु अन्यमती लोग हर्षित हो कर उनका विस्तार करते हैं। जैन धर्मका पालन करने वाले जो जीव उन हीन क्रियाओंको करने लगे हैं उन्हें संबोधित करनेके लिये उन हीन क्रियाओंका वर्णन करते हैं। जो विवेकी जीव उनका त्याग करते हैं वे संसारमें अधिक भ्रमण नहीं करते। ग्रन्थकार कहते हैं कि हे बुद्धिमान जनों ! अब उन हीन क्रियाओंका विस्तृत वर्णन करते हैं उसे सुन कर उन पर विचार करो ॥११२२-११२४॥
१ क्रियावन्त न०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org