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क्रियाकोष
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दरसन प्रतिमा निरधार, भविजनको नित उपगार । जिन मारग धरम बढावै, महिमा नहि पार न आवै ॥११०३॥ जो प्रतिमा दरसन करि है, पूरव संचित अघ हरि है । कहिये का अधिक बखान, दायक भविजन शिवथान ॥११०४॥ ऐसी प्रतिमा जुत होई, भविजन निश्चै चित सोई । मन-वच-क्रम धरिहै ध्यान, ज्यों है सब विधि कल्यान ॥११०५॥ कोऊ पूछे फिर येह, कह साखि ग्रन्थकी जेह । तिनको उत्तर ये जानी, सुनियो तुम कहूँ बखानी ॥११०६॥ साधर्मी द्विज सुखधाम, सहदेव नाम अभिराम । पूरव दिशि सेती आयो, सो सांगानेर कहायो॥११०७॥ पढियो जो ग्रन्थ अनेक, जिनमत धरे चतुर विवेक । गाथाबंध सततरि हजार, महाधवल ग्रन्थ अति सार ॥११०८॥ तिहकी टीका सुखदाई, लख साढातीन कहाई । ते श्लोक संस्कृत सारै, तिन कंठ भली विधि धारै ॥११०९॥
निश्चित ही प्रतिमाका दर्शन भव्यजीवोंका बहुत भारी उपकार करता है। वह जिनमार्ग तथा जिनधर्मको बढ़ाता है। उसकी महिमाका कोई अन्त नहीं प्राप्त कर सकता ॥११०३।। जो प्रतिमाके दर्शन करता है वह पूर्वसंचित पापोंको हरता है। अधिक व्याख्यान कहाँ तक करूँ? प्रतिमाका दर्शन भव्यजीवोंके लिये मोक्षस्थानको देनेवाला है ।।११०४॥
प्रतिमाकी ऐसी ज्योति होती है कि वह निश्चय ही भव्यजनोंका चित्त अपने समान कर लेती है अर्थात् प्रतिमाकी वीतराग मुद्राको देखनेसे भव्यजीवका मन भी वीतरागी हो जाता है। जो मन वचन कायसे प्रतिमाका ध्यान करता है उसका सब प्रकारका कल्याण होता है ।।११०५॥
कोई मनुष्य फिर पूछता है कि आपने प्रतिमाका जो इतना माहात्म्य बताया है, इसमें किसी ग्रन्थकी साक्षी कहिये। बतलाइये, आपने किस ग्रन्थकी साक्षीसे यह सब कहा है ? कविवर कहते हैं कि इस प्रश्नका उत्तर हम कहते हैं सो सुनो ॥११०६॥
सुखका स्थान एक सहदेव नामका सुन्दर साधर्मी ब्राह्मण पूर्व दिशासे सांगानेर आया। वह अनेक ग्रन्थोंका पाठी था, जिनमतका धारक, चतुर और विवेकवंत था। उसने बताया कि एक गाथाबद्ध सत्तर हजार श्लोक प्रमाण महाधवल नामका अतिशय श्रेष्ठ ग्रन्थ है। उसकी टीका साढे तीन लाख श्लोक प्रमाण है। ये सब श्लोक संस्कृतके थे तथा उसे भलीभाँति कण्ठस्थ थे।
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