SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ श्री कवि किशनसिंह विरचित कोई प्रश्न करै इह जाण, तीर्थङ्कर एक सहस प्रमाण । प्रतिमा एक बराबर कही, इह हम हिरदै ठहरत नहीं ॥ १०९६ ॥ ताकै समझावनको बैन, कहिये है अति ही सुखदैन । त्यौं प्रतिमा पूजन सरधान, अति गाढो राखो प्रतिमान ।। १०९७॥ छन्द चाल जिन समवसरण जुत राजै, मूरत उत्कृष्ट सुछाजै । निरखत निपजै वैराग, है शान्त चित्त अनुराग ॥ १०९८॥ परतक्ष तिष्ठ भगवान, समवादि सरन - जुत थान । पेखत हुल्लास बढावै, भविजन हिरदय न समावै ॥ १०९९॥ तिनकी वाणी सुनि जीव, तरिहै भव उदधि अतीव । जिनवर जब मोक्ष लहाई, तब जिन प्रतिमा ठहराई ॥११००॥ निरखत प्रतिमाको ध्यान, बुधजन हिय उपजै ज्ञान । तिनको निमित्त भवि जीव, जगमें लहिहै जू सदीव ॥ ११०१॥ प्रतिमा आकृति लखि धीर, उपजै वैराग गहीर । मन वीतरागता आनै, तप व्रत संयमको ठानै ॥११०२॥ यदि यह जान कर कोई यह प्रश्न करे कि आपने हजार तीर्थंकर और एक प्रतिमाकी महिमा बराबर कही, यह बात हमारे हृदयमें ठहरती नहीं है, तो उसे समझानेके लिये अतिशय सुखदायक वचन कहते हैं । हे बुद्धिमान जनों ! उन्हें सुन कर तुम प्रतिमा पूजनमें गाढ़ श्रद्धान रक्खो ।।१०९६-१०९७॥ 1 जब जिनेन्द्र भगवान समवसरण सहित साक्षात् बिराजमान रहते हैं तब उनकी उत्कृष्ट मुद्रा अत्यन्त शोभायमान होती है। उनके दर्शन करते ही वैराग्य उत्पन्न होता है तथा चित्त शान्त हो जाता है, उनके प्रति दर्शन करनेवालोंका अनुराग बढ़ता जाता है। समवसरणमें प्रत्यक्ष बिराजमान जिनेन्द्र भगवानके दर्शन करनेसे भव्यजीवोंके हृदयमें उल्लासकी इतनी वृद्धि होती है कि वह उनके हृदयोंमें नहीं समाता । साक्षात् जिनेन्द्रदेवकी वाणी सुनकर भव्यजीव संसार सागर से पार होते हैं । साक्षात् जिनेन्द्रदेव जब मोक्ष चले जाते हैं तब उनकी प्रतिमा स्थापित की जाती है । प्रतिमाकी ध्याननिमग्न मुद्राको देखकर ज्ञानीजनोंके हृदयमें ज्ञान - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है और उसके निमित्तसे वे संसारमें सदा सुख प्राप्त करते रहते हैं । प्रतिमाकी शान्त मुद्रा देखनेसे मनमें अत्यधिक वैराग्यकी उत्पत्ति होती है, मनमें वीतरागता आ जाती है, तप, व्रत और संयम धारण करनेकी भावना होने लगती है ।। १०९८ - ११०२॥ १. मतिमान न० २. अहलाद स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy