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क्रियाकोष
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दोहा खत्री, ब्राह्मण, वैश्य, पुनि, अवर 'पौण बहतीस । धरम गहै ढूंढानिको, अरु तिन नावै सीस ॥१०७६॥ ढूंढा तिन श्रावक गिने, आप साधु पद मान । छहों काय रक्षा सबनि, उपदेशे इह ठानि ॥१०७७॥ २दहन दया छह कायकी, पलै नहीं तहकीक । जीव ३धान फासू गिने, वस्तु गहै तहकीक ॥१०७८॥ कथन कियो ऊपर सबै, लखहु विवेकी ताहि । दुहुन चलन है एक से, इहि मारग नहि आहि ॥१०७९॥ शूद्र करम करता जिके, निज निज कुल अनुसार । पेट भरन उद्यम सफल, करै दया किम धार ॥१०८०॥
चौपाई गूजर, जाट, अहीर, किसान, खैती सींचे नीर निवान । हलवाहै त्रसको है घात, कहूं वह श्रावकपद किम पात ॥१०८१॥*
क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य अने शूद्र वर्णके लोग ढूंढिया साधुओंका मत ग्रहण कर उन्हें शिर झुकाते हैं। ढूंढिया साधु उन्हें श्रावक गिनते हैं और अपने आपको मुनि मानते हैं, सभीको षट्कायके जीवोंकी रक्षाका उपदेश देते हैं, परन्तु यथार्थमें छह कायकी दयाका पालन स्वयं भी नहीं करते। सचित्त धान्यको प्रासुक मान कर ग्रहण करते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि हमने ऊपर जो कथन किया है उसे विवेकी जन देखें-उस पर विचार करें। श्रावक और मुनियोंका चलन एक समान हो, यह मार्ग नहीं है। जिनके कार्यकर्ता शूद्र हैं वे अपने अपने कुलके अनुसार कार्य करते हैं उनका पेट भरनेका उद्यम ही सफल हो पाता है वे दयाका पालन कैसे कर सकते हैं ? भावार्थ-हीन वर्णके लोग लौकिक स्वार्थके प्रलोभनोंसे ढूंढिया मत धारण कर लेते हैं परन्तु वे अपने कुलके अनुसार कार्य करते हैं उनसे दयाका यथार्थ पालन नहीं होता॥१०७६-१०८०।।
जो गूजर, जाट, अहीर और किसान निपान-कुएके जलसे खेती सींचते हैं तथा हल चला कर त्रसका घात करते हैं वे श्रावकपदके पात्र कैसे हो सकते हैं ? ॥१०८१॥ प्रजापति-कुम्हारके
१ वरण छत्तीस क. २ यह दोहा ख० और ग० प्रतिमें नहीं है। ३ घात स० * छन्द १०८१ के आगे न० और स० प्रतिमें निम्न छन्द अधिक है
धोबी अणछाण्या जलमांहि कपडा धोवत पाप उपाहि । छीपा वसतर रंगिहै जहाँ, तेली, घाणी पीले तहाँ ।।
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