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________________ १७० श्री कवि किशनसिंह विरचित तंबोली जाट कलाल, गूजर अहीर वनपाल । खतरी रजपूत रु नाई, परजापति असन गहाई॥१०६८॥ तेली दरजी अर खाती, छीपादि जाति बहु भाँती । मदिरा हू को जो पीवे, आमिष हु भखे सदीव ॥१०६९॥ भोजन तिनि भाजन केरो, ल्यावें अति दोष घनेरो । तिन भेट्यो भोजन खैहै, ते मांसदोषके पैहै ॥१०७०॥ तो भोजनकी कहँ बात, जाने सब जगत विख्यात । जिह भाजन असन कराही, आमिष तिह मांज धराही ॥१०७१॥ जिन मारग एम कहाही, बासन जिह मांस धराही । सो शुद्ध न है 'तिरकाल, गहि है सो भील चंडाल ॥१०७२।। तिनके घरको आहार, पापी ल्यावें अविचार । अरु मुनिवर नाम धरावे, सो घोर पाप उपजावे ॥१०७३|| ते नरक निगोद मझारी, भ्रमिहै संसार अपारी । अपने श्रावक तिन भनि है, कुल ऊँच नीच नवि गिनि है ॥१०७४॥ तिनको कछु एक आचार, कहिये विपरीत विचार । निजकों मानै गुणथान, पंचम श्रावक परधान ॥१०७५॥ ग्रहण करते हैं ॥१०६५-१०६७॥ तंबोली, जाट, कलार, गूजर, अहीर, वनरक्षक, खत्री, रजपूत, नाई, कुम्भकार, तेली, दरजी, खाती तथा छीपा आदि उन नाना जातिवालोंका भी भोजन ले लेते हैं, जो मदिरापान करते हैं तथा सदा मांस खाते हैं । ये लोग अपने बर्तनोंमें रक्खा हुआ थोड़ा सा भोजन इन ढूंढ़ियोंको दे देते हैं और उसे लेकर वे अपने निवासस्थान पर आते हैं। इसमे बहुत दोष लगता है। उन लोगोंके बर्तनोंमें भोजन करनेसे जब मांसभक्षणका दोष लगता है तब भोजनकी तो बात ही क्या है ? यह सारे जगतमें विख्यात है, सब लोग इसे जानते हैं। जिन बर्तनोंमें ये भोजन कराते हैं उनमें मांस रखते हैं। जिनमार्गमें ऐसा कहा गया है कि जिस बर्तनमें मांस रक्खा जाता है वह त्रिकालमें शुद्ध नहीं होता। ऐसे अशुद्ध बर्तनका जो भोजन लेता है वह भील तथा चाण्डालके समान है ॥१०६८-१०७२॥ जो विचारहीन पापाचारी ढूंढिया उनके घरका आहार लेते हैं और अपना मुनि नाम रखाते हैं वे घोर पापका उपार्जन करते हैं, अपार संसारमें नरक और निगोदके भीतर घूमते हैं। ये अपने आपको श्रावक कहते हैं परन्तु उच्च नीच कुलका भेद नहीं गिनते । उनके कुछ विपरीत आचारका वर्णन करते हैं । ये अपनेको पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक मानते हैं ॥१०७३-१०७५॥ १ चिरकाल ग. २ भ्रमिहै सो वार न पारी स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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