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________________ क्रियाकोष १६९ कोमल पीछे है जाके, श्रावक व्रत गिनिये ताके । परिग्रह तिल तुस सम होई, मुनिराज धरै जो कोई॥१०६०॥ वह जाय निगोद मझारी, जिनवाणी एम उचारी । सो कपडाकी कहाँ रीत, चौथो पात्र विपरीत ॥१०६१॥ ए भ्रमै जगतके मांही, दुखको नहि अन्त गहाही । तिन कहै महाव्रत धारी, ते पापी हीणाचारी ॥१०६२॥ इन माने ते संसार, भ्रमिहै न लहै कहुँ पार । मन-वच-तन गुपति न गोपै, पापी मुनि धरमहि लोपै ॥१०६३॥ पिरथी जिम प्रान लहाही, चालै तिम भागे जाही । ईर्या समिति जु किम पाली, प्राणी हिंसा किम टाली ॥१०६४॥ हितमित वच कबहूँ न भाखै, जिन मतमें उलटी आखै । समिति जु भाषा न पलै है, अदया कबहुँ न टले है ॥१०६५॥ किम एषण समिति सधै है, जिनके इम पाप बंधै है । जो दोषरहित आहार, निवि जाने तसु विध सार ॥१०६६॥ मुनि अन्तराय जे होई, तिन नाम न समझे कोई । कुल ऊँच नीच नहि जाणे, शूद्रनके असन जु आणे ॥१०६७॥ जिनागममें कहा गया है। मुनियोंके कपड़ा तो होता ही नहीं है अतः पात्रोंका रखना भी विपरीत माना गया है। विपरीत आचरण करने वाले लोग संसारमें ही भटकते रहते हैं उनके दुःखोंका अन्त नहीं आता। ऐसे ढूंढिया लोगोंको जो महाव्रतधारी कहते हैं वे पापी हीनाचारी हैं ॥१०५८१०६२॥ इन्हें जो पुरुष मानते हैं वे संसारमें ही भ्रमण करते हैं, कभी संसारका अन्त नहीं पाते। ये पापी मन वचन और काय इन तीन गुप्तियोंका पालन नहीं करते तथा मुनिधर्मका लोप करते हैं। भाग कर ऐसे चलते हैं मानों पृथिवीके प्राण ही ले रहे हो। इस प्रकार शीघ्रतासे चलने वाले लोगोंसे ईर्या समितिका पालन कैसे हो सकता है और प्राणीहिंसा कैसे टल सकती है ? अर्थात् नहीं टलती ॥१०६३-१०६४॥ ये हित मित वचन कभी नहीं बोलते किन्तु जिन मतसे विपरीत बात कहते हैं । इनसे भाषासमितिका पालन नहीं होता और न ही अदया टलती है अर्थात् दूर होती है। जिनके इस प्रकार पापबन्ध होता रहता है उनसे एषणा समितिकी साधना किस प्रकार हो सकती है ? जो दोषसहित आहार लेते हैं, आठ प्रकारकी शुद्धिका जिन्हें ज्ञान नहीं है, जो मुनिके अन्तरायोंके नाम भी नहीं जानते, ऊँच नीच कुलका भेद नहीं समझते, शूद्रके घरका भी भोजन १ सो कपडाकी क्या प्रीत, मुनिको परिग्रह विपरीत । स० २ न वि जाने तसु आचार स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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