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श्री कवि किशनसिंह विरचित
रवि उदय होत तिह वार, घरि घरि भटकै निरधार । जल ल्यावै फासू भाखै, तिह सांझ लगे धरि राखै ॥१०५३॥
उपजै ता मांहे जीव, घटिका दुइ मांहि अतीव । सो बरतै पीवे पानी, करुणा न तहाँ ठहरानी ॥ १०५४ ॥ घृत जल धरि तेल सुचाम, सो बहु जीवनको धाम । तिनतें निपज्यो जु अहार, सो मांस- दोष निरधार ॥ १०५५ ॥ ऐसो दोष न मन आने, तिनको है नरक पयाने । ढूंढा अघ केरी मूरत, इन माने पापी झूठीको साँच बखानै, उपदेश सु झूठो झूठो मारग जु गहावै, सो झूठ दोष को शीलांग हजार अठारा, लागै तिन दोष अपारा । परिग्रहको ठीक न कोई, कपडा पात्रादिक होई ॥१०५८॥
धूरत ॥ १०५६।।
ऐसो धरि भेष जु हीन, माने तिन मूरख दीन । ग्यारा प्रतिमा प्रतिपालक, कोपीन कमण्डल धारक ॥ १०५९॥
ठाणे । पावै ॥ १०५७ ॥
जब सूर्योदय होता है तब घर घर जाकर वे प्रासुक जल लाते हैं और उसे संध्या तक अपने स्थान पर रखते हैं । उस जलमें दो घड़ीके भीतर अत्यधिक जीव उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे जलको वे संध्या तक पीते हैं तथा व्यवहारमें लाते रहते हैं । उनके इस कार्यमें करुणा कहाँ है ? अर्थात् नहीं है ।। १०५३-१०५४।।
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चमड़े के बर्तनोंमें जो घी तेल तथा जल आदि रक्खा जाता है वह अनेक जीवोंका स्थान बन जाता है । ऐसे घी तेल तथा जल आदिसे जो आहार बनता है उसमें निश्चय ही मांसका दोष
ता है। ऐसा दोष जिनके मनमें नहीं आता है अर्थात् इस दोषका जो मनमें विचार नहीं करते हैं उन्हें नरककी प्राप्ति होती है । ढूंढिया पापकी मूर्ति हैं इन्हें जो मानते हैं वे पापी हैं, धूर्त हैं । झूठो सत्य बताते हैं उनका उपदेश झूठा है । जो दूसरोंको झूठा मार्ग ग्रहण कराते हैं वे झूठा दोष प्राप्त करते हैं ।। १०५५-१०५७।।
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शील अठारह हजार भेद हैं उनमें वे अपार दोष लगाते हैं । उनके परिग्रहका भी कोई ठिकाना नहीं है, वस्त्र तथा बर्तन आदिक उनके पास रहते ही हैं ।। १०५८ || इस प्रकारके हीन वेष धारक लोगोंको जो मानते हैं वे दीन अज्ञानी हैं । ग्यारहवीं प्रतिमाके धारक जो एलकक्षुल्लक हैं, वे लंगोटी कमण्डलु और कोमल पीछीको रखते हैं उनके भी श्रावकके व्रत माने गये हैं। यदि कोई मुनि तिल-तुष बराबर भी परिग्रह रखते हैं तो वे निगोदमें जाते हैं, ऐसा
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