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श्री कवि किशनसिंह विरचित
निज घर घृत विधि न मिलाही, व्रत धरि तब लूखौ खाही । अरु घिरत सोधिको खावै, व्रतमें बहु हरी मंगावै ॥१०१०॥ इस सोधि न कहिये भाई, जामें करुणा न पलाई । करुणा जुत कारज नीको, सुखदाई भवि सब ही को ॥१०११॥
दोहा घिरत सोधिकाकी सुविधि, कही यथारथ सार । अच्छी जाणि गहीजिये, बुरी तजहु निरधार ॥१०१२॥
चौपाई अब कछु क्रियाहीन अति जोर,प्रगट्यो महा मिथ्यात अघोर । श्रावकसों कबहूँ नहि करै, आनमती हरषित विस्तरै ॥१०१३।। जैन धर्म कुल केरे जीव, करे क्रिया जो हीण सदीव । 'तिनके संचय अघकी जान, कहै तासकी चाल बखान ॥१०१४॥ तिहको तजै विवेकी जीव, करवेतें भव भ्रमे अतीव । अब सुनियो बुधिवंत विचार, क्रिया हीण वरणन विस्तार ॥१०१५॥
मिथ्यामत कथन
दोहा मिथ्यामति विपरीत अति, ढूंढा प्रकटा जेम ।
तिनि वरनन संक्षेपतें, कहों सुनौं हो नेम ॥१०१६॥ यदि अपने घर घी नहीं बनता है तो व्रतधारी पुरुषको सुखा भोजन करना चाहिये। कोई लोग घृत तो शोधका खाते हैं परन्तु व्रतमें बहुत हरी मंगाते है सो इसे शोध नहीं कहते हैं। जिसमें करुणा-दया दूर भागती है वह शोध नहीं है। हे भाई ! जो कार्य करुणासे युक्त होता है वही सबको सुखदायक होता है ।।१०१०-१०११॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि हमने इस प्रकार शोधके घृतकी यथार्थ विधि कही है उसे अच्छी जान कर ग्रहण करो ॥१०१२॥
अब अतिशय भयंकर महा मिथ्यात्वके जोरसे कुछ ऐसी हीन क्रियाएँ चल पड़ी है जिन्हें श्रावक कभी नहीं करते, किन्तु अन्यमती हर्षित हो कर उनका विस्तार करते हैं। जैन कुलमें उत्पन्न हो कर जो सदा हीन क्रियाएँ करते हैं उनके पापका संचय होता है। उनकी चालरीतिका वर्णन करते हैं। विवेकी जीवोंको उनका त्याग करना योग्य है। उन हीन क्रियाओंको जो अविवेकी जीव करते हैं वे संसारमें अत्यन्त भ्रमण करते हैं। हे बुद्धिवंत जनों ! अब उन हीन क्रियाओंका विस्तार सहित वर्णन सुनो और उन पर विचार करो ॥१०१३-१०२५।।
मिथ्यामत कथन अत्यन्त विपरीत ढूंढ़िया मत जिस प्रकार प्रकट हुआ है उसका संक्षेपसे कुछ वर्णन करते १ तिनके संबोधनको जानि, कहे तास की चाल बखानी । न०
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