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________________ क्रियाकोष १६१ सो सगली किरिया भाखी, गोरस-विधि आगे आखी । लूण्यो निकलै ततकाल, औटावे सो दर हाल ॥१००३॥ वासनमें छानि धराही, हे खरच जितों कडवाहीं । कहाँ वरत, कहाँ सुद्ध भाय, घृत गृही सोधि को खाय ॥१००४॥ ऐसो घृत खैवै वालो, अन्तराय सु नित प्रति पालो ।। यह कथन कियो सब सांच, यामें न अलीकी वांच ॥१००५॥ ऐसी विधि निपजै नाहीं, गांवनतें हूँ न मंगाही । मोलि न लेणो ठहराई, घृत खाय सु देव बताई ॥१००६॥ विधि वाही जिम पय ल्यावै, किरिया जुत ताहि जमावै । दधि छाछ घिरत पय लूनी, विधि कही करिय न वि ऊनी ||१००७॥ निज घर जो घृत निपजाही, व्रत धरि श्रावक सो खाही । कर छुबै न माली व्यास, हिंसा त्रस है नहिं तास ॥१००८॥ प्रानी न परै जिह माहीं, सो तो घृत सोधि कहाही । घृत सो निज घर निपजइये, घृत धरि सो व्रतमें पइये ||१००९॥ मथनेकी जितनी क्रिया है उसका वर्णन गोरसके प्रकरणमें पहले कर आये हैं। मथनेके बाद जो लोणी (नैनू) निकले उसे तत्काल तपा लेना चाहिये ॥१००३॥ उस तपाये हुए घीको छान कर बर्तनमें रख लें और जितना खर्च हो उतना निकाल कर शेषको ढक्कनसे बंद कर दे । कविवर किशनदासजी कहते हैं कि कहाँ व्रत और कहाँ शुद्ध भाव है ? गृहस्थ व्रतीको इस प्रकारसे निर्मित शोधका घी खाना चाहिये ॥१००४॥ ऐसा घृत खानेवाले हे व्रती श्रावको ! तुम सुनीतिपूर्वक अन्तरायका भी पालन करो अर्थात् अन्तराय टाल कर भोजन करो। यह कथन हमने सत्य किया है इसमें कुछ भी मिथ्या बात नहीं है ॥१००५॥ ___ जो इस विधिसे नहीं बनाया गया है वह घृत नहीं खाना चाहिये। इसके विपरीत जो गाँवोंसे नहीं मँगाया गया है और न लोणी (नैनू) मोल लेकर बनाया गया है वह घृत खाना चाहिये ऐसी रीति सुदेव-जिनेन्द्र भगवानने बतलाई है ॥१००६॥ यदि बाहरसे दूध लाना पड़े तो उसी विधिसे लाकर क्रियापूर्वक जमावे । दही, छांछ, घृत, दूध और लोणी (नैनू) की जो विधि बतलाई हैं उसमें कमी नहीं करना चाहिये ॥१००७॥ जो घृत अपने घर बनाया जाता है वही व्रतधारी श्रावकको खाना चाहिये। जिस घृतको माली या व्यास (ब्राह्मण ?) हाथसे नहीं छुए, जिसमें त्रस हिंसा न हो, जिसमें मक्खी आदि जीव न पड़ें हों वही शोधका घी कहलाता है। इसी प्रकारका घी व्रतधारी श्रावकको लेना चाहिये ॥१००८-१००९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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