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क्रियाकोष
चौपाई
स्वामी भद्रबाहु मुनिराय, पंचम श्रुतकेवलि सुखदाय । मुनिवर अवर सहस चौबीस, चउ प्रकार संघ है ' गण ईश || १०१७ | उज्जयनीमें जिनदत्त साह, ताके भद्रबाहु मुनि नाह । चरियाको पहुँचे तहँ गणी, झूलत बालक वच इम भणी ॥ १०१८॥ गच्छ गच्छ विधि नहीं आहार, बारे वरष लगै निरधार । अन्तराय मुनिवर मनि आन, पहुँचे संघ जहाँ वन थान || १०१९ ॥ स्वामी निमित्त लख्यो ततकाल, पडिहै बारा वरष दुकाल । मुनिवर धर्म सधै नवि सही, अब इहाँ रहनौ जुगतौ नहीं ॥ १०२ ॥ कितेक मुनि दक्षिणको गये, कितेक उज्जैनी थिर रहे । तहाँ काल पडियो अति घोर, मुनिवर क्रियाभ्रष्ट है जोर || १०२१॥ मत श्वेतांबर थापियो जान, गही रीत उलटी जिन वान । तिनको गच्छ वध्यो अधिकार, हुंडाकार दोष निरधार ॥। १०२२॥ तिन अति हीण चलन जो गह्यो, चरित जु भद्रबाहुमें कह्यो । ता पीछे पनरासे साल, कितेक वरष गये इह चाल || १०२३॥
हैं ।।१०१६॥ मुनिराज भद्रबाहुस्वामी सुखदायक पंचम श्रुतकेवली थे । उनके साथ चौबीस हजार अन्य मुनिओंका संघ था। उस चतुर्विध संघके वे गणपति थे । एक बार उज्जयिनी नगरीमें भद्रबाहु मुनिराज जिनदत्त सेठके घर चर्याके लिये गये । वहाँ पालनेमें झूलते हुए एक बालकने इस प्रकार कहा कि 'गच्छ गच्छ' जाओ, जाओ, यहाँ आहारकी विधि नहीं है । इसमें बारह वर्ष लगेंगे । मुनिराज अन्तराय मान कर, वनमें जहाँ संघ विराजमान था वहाँ गये ।।१०१७- १०१९ ।। भद्रबाहु स्वामीने निमित्त ज्ञानसे तत्काल जान लिया कि यहाँ बारह वर्षका दुष्काल पड़ेगा । यहाँ मुनिधर्मकी साधना नहीं हो सकेगी, इसलिये अब यहाँ रहना योग्य नहीं है। ऐसा विचार कर कितने ही मुनि दक्षिणमें चले गये और कितने ही उज्जयिनीमें स्थिर रह गये । वहाँ अत्यन्त भयंकर अकाल पड़ गया जिससे मुनि क्रियाभ्रष्ट हो गये । उसी समय श्वेताम्बर मतकी स्थापना हुई और जिनवाणीके विपरीत प्रवृत्ति स्वीकृत की गई । हुण्डावसर्पिणी कालके दोषके उन श्वेताम्बरोंका गच्छ-समूह अधिक विस्तारको प्राप्त हुआ ।।१०२०-१०२२॥
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जैसा कि भद्रबाहु चरितमें कहा गया है कि उन श्वेताम्बरोंने अत्यन्त विपरीत प्रवृत्तिको ग्रहण कर लिया । तत्पश्चात् कितना ही काल व्यतीत होने पर संवत् पन्द्रह सौ के वर्षमें लुंका १ गुण ईश न०
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