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श्री कवि किशनसिंह विरचित
लघु ग्राम कोस दस वास, निज समधी तहाँ निवास । किंकर भेजे ता पाई, व्रत जोग घिरत मंगवाई || ९८२॥ जाता आता बहु जीव, बिनसै मार्गमें अतीव ।
स घात मंगावत होई, सो शोध कहो किम जोई || ९८३॥
कोइ प्रश्न करै इह जागै, श्रावक होते जे आगे । घृत खावै अक कछु नांहीं, हम मन इह शंका आंहीं ॥९८४॥ ताके समझावन लायक, भाखै अति ही सुखदायक । श्रावक जु हुते व्रतधारी, तिन घृत विधि सुनि यह सारी ॥ ९८५॥ चौपाई
जाके घर महिषी या गाय, पके ठाम तिनही बंधवाय । सरद रहै न हि ठाम मझार, बालू रेत तहाँ दे डार ॥ ९८६॥ किंकर एक रहै तिन परै, सो तिनकी इम रक्षा करै । देय बुहारी सांझ-सवार, उपजै नहीं जीव तिन ठार ॥ ९८७॥ दो-तीन दिन बीतै जबै, प्रासुक जलहि न्हवावै तबै । परनाली राखै तिह ठांहि, बहै मूत्र तिनके ढिग नाहि ॥ ९८८ ॥
कोई लोग दश बीस कोशकी दूरी पर छोटे छोटे गाँवोंमें रहने वाले अपने संबंधी जनोंके पास किंकर - नौकर भेज कर व्रतके योग्य घी मँगाते हैं परन्तु नौकरके आने जानेसे मार्गमें बहुत जीवोंका विघात होता है। जिसमें त्रस जीवोंका घात हो वह शोधका घी कैसे हो सकता है ? ।। ९८२ - ९८३।
यहाँ कोई यह प्रश्न करता है कि श्रावक होनेके बाद घृत खावे या नहीं ? हमारे मनमें यह शंका उठती है। उन्हें समझानेके लिये अत्यन्त सुखदायक बात कहते हैं । जो व्रतधारी श्रावक हुए हैं उनके घृतकी सब विधि कहते हैं ।। ९८४-९८५।।
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जिनके घर भैंस या गाय है वे उसे पक्की थान पर बंधवावें । थान पर शरद् - आर्द्रता न रहे। बालू या रेत डाल कर उसे सुखा रक्खें । उस गाय भैंसकी व्यवस्थाके लिये एक नौकर रक्खे जो उनकी रक्षा करता रहे और थानको सुबह शाम झाड़ता रहे जिससे वहाँ जीव उत्पन्न न हो सके। दो तीन दिन बीतने पर गाय भैंसको प्रासुक जलसे नहलावे । थानके पास एक नाली रखना चाहिये जिससे मूत्र बह कर गाय भैंसके पास न जा सके ।।९८६-९८८।। अथवा उनके पास बर्तन रख देवे जिससे मूत्र बर्तनमें पड़े, बह कर गाय भैंसके पास न जावे । गाय
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