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________________ क्रियाकोष १५७ खावत है जे मति-हीण, तसु सकल क्रिया व्रत क्षीण ।। निसि सो तिय दूध मँगावै, तुरतहि नहि अगनि चढावै ॥९७५॥ इह तें अघ उपजै भारी, पुनि तिहमहि घृत बहु डारी । दे जामण दही जमावै, दधि मथिकै घीव कढावै ॥९७६॥ लूणी बहु वेला राखै, उपजौ अघ वाणी भाखै । बेचे ले बहुत पईसा, पुनि पाप जिही नहि दीसा ॥९७७॥ जो घिरत शोधको माने, व्रतमें जो खैवो ठाने । दूषण ऐसो लखि ताम, जैसो घृत धरिये चाम ॥९७८॥ सुनिये अब अघकर बात, जानत जन सकल विख्यात । 'निरमाय लखे है माली, भो जग सुनि लेहु विचारी ॥९७९॥ तिन पास मँगावे घीव, अरु शोध गिनै जे जीव । तिनकी छूई जो वस्त, दोषीक गिणो जु समस्त ॥९८०॥ आचार कहो शुभ भाय, तिनको जो वस्तु मिटाय । आचरिये कबहूँ नाहिं, जिनवर भाष्यो श्रुतमाहिं ॥९८१॥ क्रिया नष्ट हो जाती है। जो स्त्री रातमें दूध मँगाती है वह उसे शीघ्र ही अग्नि पर नहीं चढ़ाती ॥९७४-९७५॥ इससे उसे बहुत भारी पापबंध होता है। उस दूधमें वह बहुत घी डालती है और जामन दे कर दही जमा देती है। दहीको मथ कर फिर घी निकालती है। लोणी (नैनू) को बहुत समय तक रखे रहती है जिससे जीव राशि उत्पन्न होनेसे पाप बन्ध होता है, ऐसा जिनवाणी कहती है। इस विधिसे तैयार हुए घृतको वह बहुत पैसा लेकर बेचती हैं परन्तु पाप कितना लगता है, यह दिखाई नहीं देता ॥९७६-९७७॥ इस प्रकारके घृतको जो शोधका घृत मानते हैं और व्रत लेकर उसे खाते हैं उसमें ऐसा दोष समझिये जैसा चमड़ेके अंदर रखे घीमें होता है ॥९७८|| अब पाप उत्पन्न करने वाली एक बात और सुनो जिसे सब लोग जानते हैं और जो सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। कुछ लोग शहरमें रहते हैं और गाँवोंमें उनके हीन जातिके कर्मचारी-नौकर आदि रहते हैं उनसे घी बनवा कर मँगाते हैं और उसे शोधका घी मानते हैं परन्तु वह शोधका घी नहीं है। अन्य लोगोंके द्वारा छुई हुई जो वस्तुएँ हैं उन्हें दोषयुक्त मानना चाहिये। शुभभावोंसे किया गया आचार, आचार कहलाता हैं। उसे जो वस्तु नष्ट कर देती है उसका आचरणसेवन कभी नहीं करना चाहिये, ऐसा जिनेन्द्र भगवानने जिनागममें कहा है ॥९७९-९८१॥ १ निरमाय लखै हैं जेहा, माली भोजक हैं तेहा स० निरमायक लखिये जेहु, माली भोजग सुन लेहु न० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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