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श्री कवि किशनसिंह विरचित
शोधके घृतकी मर्यादा दोहा
मरजादा सब शोधकी, कही मूलगुणमांहि । जहि व्रतमें भोजन करै, घिरत शोधको खांहि ॥ ९६९ ॥ छंद चाल
घरमें तो निपजै नाहीं, बिकतो लखि मोल गहाहीं । तिह शोध बखाणै कूर, शुभ क्रिया न तिनके मूर ॥ ९७०॥ श्रवास्या लघु ग्रामावास, जल आदि क्रिया नहि तास । तिनके घरको जो घीव, धर भाजन मलिन अतीव ॥ ९७१॥ ले आवै शहर मझार, बैचेउ लोभ विचार । ड्योढा दुगुणा ले दाम, लखि लाभ खुशी है ताम ॥ ९७२ ॥ तौलत परिहै तहँ माखी, करतै काढै दे नाखी । जीवत मूई नहि जानै, तिहि जतन न कबहूँ ठानै ॥ ९७३ ॥ परगाँव तणी इह रीति, सुन शहर तणी विपरीति । बैचे दधि छाछ विनाणी, तिनके घरकौ घृत आणी ॥ ९७४ ॥
शोधके घृतकी मर्यादा
शोधकी मर्यादा श्रावकके मूल गुणोंमें कही गई है अर्थात् भोजन पानकी वस्तुओंकी मर्यादाका पालन करना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है । जो मनुष्य व्रती होकर भोजन करते हैं वे शोधका घृत खाते हैं । यहाँ शोधके घृतकी विधि कहता हूँ ॥ ९६९ ॥ घीकी उत्पत्ति घरमें नहीं होती और उसके खानेकी विकलता नष्ट नहीं हुई, ऐसी स्थितिमें मूल्य दे कर घृत लेते हैं । बेचने वाले यद्यपि कहते हैं कि हमारा घी शुद्ध है तथापि उनकी क्रिया मूलतः शुभ नहीं होती है । बेचने वालोंका निवास छोटे छोटे गाँवोंमें होता है उनके पास पानी आदिकी क्रिया नहीं होती । ऐसी लोगोंके घर जो घृत होता है उसे वे अत्यन्त मलिन बर्तनोंमें रख कर बेचनेके लिये शहरमें लाते हैं। लोभवश वे अधिक मूल्य लेकर बेचते हैं। डेवढ़ा और दुगुणा दाम मिलनेसे उन्हें प्रसन्नता होती है । तौलते समय यदि कोई मक्खी पड़ जाती है तो उसे निकाल कर फेंक देते हैं । मक्खी जीवित है या मर गई इसका वे कुछ भी यत्न नहीं करते । ९७० ९७३ ॥
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यह गाँवोंमें रहने वाले लोगोंकी विधि है । अब जो शहरमें दूध दही घी बेचते हैं उनकी विधि तो महा विपरीत है । उनके घीको जो बुद्धिहीन मनुष्य खाते हैं उनकी व्रत सम्बन्धी सकल
१ वान्या स० न०
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