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________________ क्रियाकोष इतनी तो नजर्या लखि लेहु, मावो करतां पयमें तेहु । पडै जीव उसमें लघु जात, अरु फिर रात तणी का बात ॥९६२॥ ताहूमें पुनि वरषा काल, पडै जीव तिहि निसि दर हाल । मांछर डांस पतंगा आदि, मावो इसो खात शुभवादि ॥९६३॥ सदा पापदायक है सही, पाप थकी दुरगति दुख लही । लंपटता छूटै नहि जदा, निसिको कियो न खइये कदा ॥ ९६४ ॥ जो खैवो विनु रह्यो न जाय, तो पय जतन थकी घर ल्याय । मरयादा बीते नहि जास, क्रिया सहित मावो करि तास ॥९६५॥ जिह्वा लंपटता वशि थाय, तो ऐसी विधि करिकै खाय । कोऊ छल पकरैगो एम, उपदेश्यो आरंभ बहु केम ||९६६ || वामें काचा पयको दोष, अरु त्रस जीव कलेवर कोष । यातें जतन थकी जो करै, जतन साधि भाष्यो है सिरै ॥९६७॥ जतन थकी किरिया हूं पलै, जतन थकी अदया हूं टलै । जतन थकी सधिहै विधि धर्म, जतन मुख्य लखि श्रावककर्म ॥९६८॥ १५५ आग पर ओंटा कर गिंदोड़ा बनाते हैं इसमें असंख्य जीवोंकी हिंसा होती है ।। ९६०-९६१।। इतनी बात तो हम अपनी आँखोंके सामने देखते हैं कि मावा बनाते समय दूधमें छोटे छोटे अनेक जीव आकर पड़ जाते हैं। फिर रातका समय हो और वह भी सामान्य रात नहीं, परन्तु वर्षा कालकी रात हो, तो तो उसमें डांस, मच्छर, पतंगा आदि अनेक जीव पड़ कर मर जाते हैं। ऐसे मावेको खाना अकल्याणकारी है, सदा पापको देने वाला है, और उस पापके फलस्वरूप दुर्गति दुःख भोगने पड़ते हैं । जिह्वालंपट मनुष्य यदि इसे खाना नहीं छोड़ सकते हो तो रातका बना हुआ तो कभी नहीं खावें ।। ९६२ - ९६४ ।। यदि खाये बिना रहा नहीं जाता है तो यत्नाचारपूर्वक दूधको दुहा कर घर लाना चाहिये और दो घड़ीकी मर्यादा बीतनेके पहले ही क्रियापूर्वक उसका मावा बना लेना चाहिये । कविवर किशनसिंह कहते हैं कि यदि कोई जिह्वालंपटताके वशीभूत है तो उसे इस विधिसे मावा बना कर खाना चाहिये । यहाँ कोई यह कह सकता है कि इतने आरंभका उपदेश किसलिये दिया ? इसका उत्तर यह है कि ऐसे मावेमें कच्चे दूधका दोष है तथा बनाते समय त्रस जीवोंके पड़नेसे उनके कलेवरका दोष है इसलिये यत्नाचारपूर्वक बनानेकी बात कही है । यत्नाचारपूर्वक कार्य करनेसे क्रियाका पालन होता है, अदयाका दोष दूर होता है, और सारी धर्म विधि बन जाती है । परमार्थसे यत्नाचार ही श्रावकका मुख्य कर्तव्य है ।। ९६५-९६८ ।। १ महा पापदायक है सही न० स० २ वामें पय काचेको दोष स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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