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________________ १५४ श्री कवि किशनसिंह विरचित तामें तोलै चून रु नाज, चरम वस्तु है दोष समाज । कागद काठ वांस अर धात, राखै किरियावंत विख्यात ॥ ९५६॥ सिंघाडा अति कोमल आंहि, होली गये जीव उपजांहि । ताकी होय मिठाई जिती, खैवो जोग न भाखी तिती ॥ ९५७ ॥ केऊ करिवि घूघरी खाय, केउक सीरो पुडी बनाय । होली पहिली तो सब भली, खैवो जोग कही मन रली ||९५८॥ पीछे उपजै जीव अपार, क्रिया दयापालक नर सार । तब इनकौं तो भीटै नांहि, कही धर्म साधै तिन खांहि ॥९५९॥ दूध गिदौडी कै गूजरी, दोहै पीछे जाय बहु घरी । निज वासणमें घर ले जांहि, करै गिदौडी मावो तांहि ॥ ९६०॥ दोष अधिक काचा पय तणो, ताकौं कथन कहाँलों भणो । अविवेकी समझे नहि तांहि, ४ समझाये हम तिन ही आहि ॥९६९॥ चमड़े की जो तराजू है उसे ज्ञानी जन घड़ीभरके लिये भी अपने घर न रक्खे, क्योंकि चमड़ेकी तराजू पर तोले गये चून और अनाजमें चर्मस्पर्शका दोष आता है । क्रियावन्त श्रावक कागज, काष्ठ, बांस अथवा धातुसे बनी हुई तराजू रखते हैं यह प्रसिद्ध है ।।९५३-९५६।। सिंघाड़ा अत्यन्त कोमल पदार्थ है। होलीके बाद उसमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिये होली के बाद सिंघाड़ेसे बनी जितनी मिठाइयाँ हैं उनको खाना योग्य नहीं है ।। ९५७ || कितने ही लोग सिंघाड़ेकी घूंघरी बनाकर खाते हैं और कितने ही सीरा पुड़ी बनानेमें उसका उपयोग करते हैं परन्तु यह सब होलीके पहले खाना योग्य है। होलीके बाद उसमें अपार जीव उत्पन्न हो जाते हैं अतः दयासहित क्रियाका पालन करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य, होलीके बाद इसका उपयोग नहीं करते। जिससे धर्मकी रक्षा हो वही वस्तु खाने योग्य है ।। ९५८ - ९५९ ॥ गिंदोडी (मावा) बनानेके लिये गूजरी दूध दुह कर अपने बर्तनमें घर ले जाती है । जब बहुत दूध इकट्ठा हो जाता हैं तब उसकी गिंदोडी बनाती है । गिंदोडी बनानेमें अधिक दोष तो कच्चे दूधका है | कच्चे दूधमें कितना दोष है इसका कथन कहाँ तक किया जाय ? इसे अज्ञानी लोग समझते नहीं है अतः उन्हें समझानेके लिये हम प्रयत्न करते हैं । भावार्थ-दूध दुहनेके बाद दो घड़ीके भीतर यदि उसे आग पर गर्म नहीं किया जाता है तो उसमें उसी जातिके असंख्य संमूर्च्छन जीव पैदा हो जाते हैं। गिंदोडी (मावा) बनानेवाले लोग इसका ध्यान नहीं रखते । गाय भैंसको दुह दुह कर दूध इकट्ठा करते जाते हैं, पश्चात् जब बहुतसा दूध इकट्ठा हो जाता है तब १ चालें तोलें स० २ वांस धात काटकी होय, राखें क्रियावंत जु सोय स० ३ तातें इनको भेंटे नांहि स० ४ समझाये हू मन नहि आही न० समझाये नहि समझे आहि स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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