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________________ क्रियाकोष १५३ जल-भाजन शूद्रनको दोष, वासी वटवोयो अघकोष । बहु दिन राखै जिय उपजाय, तिनहि विवेकी कबहुँ न खाय ॥९४९॥ कैर करेली अरु सांगरी, शूद्र उकालै ते निज घरी ।। पडै कुंथवा वरषा काल, यह खैवो मति-हीनी चाल ॥९५०॥ अंबहलि कैरीकी जो करै, जतन थकी राखै निज घरै । 'जल बरसै अरु नाहीं मेह, तब लौं जोग खायवो तेह ॥९५१॥ वरषा काल मांहि निरधार, उपजै लट कुंथवा अपार । इन परि चौमासो जब जात, ताहि विवेकी कबहु न खात ॥९५२॥ नई तिली तिल निपजै जबै, फागुण लों खइये जन सबै ।। सो मरजाद तेल परमाण, होली पीछे तजहु सुजाण ॥९५३॥ यातें होली पहिलो गही, ले राखै श्रावक घर मही । होली पछिलौ है जो तेल, तिनमें जीव कलेवर मेल ॥९५४॥ सो वरते कातिक लों तेल, तिन भवि सुनके लखिवो मेल । २चरम तणी जो है ताखडी, बुध जन घर राखै नहि घडी ॥९५५॥ सुखा कर बेचते हैं और सब लोग खाते हैं ॥९४८॥ इसके खानेमें शूद्रके जल तथा बर्तनका दोष है, साथ ही वासी खानेसे बहुत भारी पाप होता है। इन फलियोंको यदि बहुत दिन तक रक्खा जावे तो उनमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिये विवेकी मनुष्य इन्हें नहीं खाते हैं। कैर, करेली और सांगरीको भी शूद्र लोग अपने घर पर तैयार करते हैं। वर्षाकाल आने पर उनमें सूक्ष्म जीव पड़ जाते हैं अतः इन्हें खाना निर्बुद्धि मनुष्योंका काम है। कच्चे आमोंकी जो कैरी की जाती है उसे अपने घर बड़े यत्नसे रखना चाहिये। जब तक मेघवृष्टि न हो तभी तक उन्हें खाना योग्य है क्योंकि वर्षाकालमें इनमें बहुत सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इन वस्तुओं पर यदि बरसातका चौमासा निकल गया है तो विवेकी जन उन्हें नहीं खाते हैं ॥९४९-९५२॥ ___नवीन तिलीका तेल जब बनता है तो उसे फागुन तक खाना चाहिये । यही तेलकी मर्यादा है। होलीके बाद उसका त्याग कर देना चाहिये । यही कारण है कि श्रावकके घर होलीके पहले तेल ले लिया जाता है। होलीके बाद जो तेल तैयार होता है उसमें जीवोंका कलेवर मिला रहता है। होलीके पहले तैयार हुआ तेल कार्तिक तक उपयोगमें लाना चाहिये। भावार्थ :-तिलीमें जीवराशि जल्दी उत्पन्न हो जाती है इसलिये उसका तेल विधिपूर्वक होलीके पहले निकलवा लेना चाहिये, होलीके बाद नहीं। होलीके पहले निकलवाया तेल कार्तिक तक काममें लिया जा सकता है। कार्तिकके बाद नवीन तिली आने लगती हैं। १ जब लगु नांही वरसै मेह, तब लगु जोग खायवे तेह । स० न० २ चरम चालणी जो ताखडी स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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