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________________ १५० श्री कवि किशनसिंह विरचित जल भाजन अशुद्ध अति जाण, सारमेय मूतें हि थान । पूंगी लौंग रु गिरी बिदाम, डोडादिक पुनि लावै ताम ||९३०|| चूनौ काथ इत्यादि मिलाहिं, सबै मसालो पाननि माहिं । धरकै बीडा बांधै सोय, सब जन खात खुशी मन होय ॥९३९॥ धरम पाप नहि भेद लहन्त, ते ऐसे बीडा जु गहन्त । अरु उत्पत्ति काथकी सुनो, अघदायक अति है तिम गुणो ॥ ९३२॥ काथ ( कत्था ) की उत्पत्ति चौपाई विन्ध्याचल तहँ भील रहन्त, खैर रूखकी छाल गहन्त । औंटावे निज पानी डार, अरुण होय तब लेय उतार ॥९३३॥ तामें चून जु मंडवा तणो, तन्दुल ज्वार सिंघाडा भणो । नाख खैर जलमांही जोय, रांध राबडी गाढी सोय ॥ ९३४ ॥ ताहि सुखावै कुंडा मांहि, उत्पत्ति काथ यहै सक नाहि । कहूँ कहा लौं वारंवार, होय पाप लख कर निरधार ॥ ९३५॥ सुखदायक सिख गहिये वीर, दुखद पापको छांड्यो धीर । छांडे मन वच सुख सो लहै, बिनु छांडे दुर्गतिको गहै ॥९३६॥ लोग पेशाब करते हैं वहाँ पर भी पड़ी सुपारी, लोंग, नारियलकी गिरी, बादामकी बिजी तथा डोंड़ा आदिकको वे लोग उठा लाते हैं । चूना, कत्था तथा अन्य सब मसाले पानमें रख बीड़ा बाँध कर देते हैं और सब लोग प्रसन्नचित्त होकर उन्हें खाते हैं । जिन्हें पुण्य और पापका भेद नहीं है वे ही उन बीड़ोंको ग्रहण करते हैं । अब कत्थेकी उत्पत्ति सुनो और उसे अत्यन्त पापदायक समझो || ९३०-९३२॥ काथ ( कत्था ) की उत्पत्तिका वर्णन विन्ध्याचलमें जो भील रहते हैं वे खदिर वृक्षकी छाल निकालते हैं। फिर उसे अपने पानीमें डाल कर औंटाते हैं। जब वह लाल लाल हो जाता है तब उसमें मंडवा ( ? ) का आटा, चावल, ज्वार अथवा सिंघाड़ेका चून मिला कर औंटाते हैं। जब वह रबड़ीके समान गाढ़ा हो जाता है तब उसे कुण्ड़ोंके भीतर रख कर सुखा लेते हैं । इस तरह कत्थेकी उत्पत्ति इतनी पापपूर्ण है कि उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता। बार बार कहाँ तक कहूँ ? उसके पापको देखकर निर्णय करो ॥९३३ - ९३५॥ कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हे भाई! इस सुखदायक शिक्षाको ग्रहण करो और दुःखदायक पापको छोड़ो। जो मनवचनकायासे इसका त्याग करते हैं वे सुखको प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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