SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रियाकोष १४९ आँवलाकी उत्पत्ति चौपाई वरडि मांझ आंवला अपार, हीण क्रिया तामें अधिकार । हो आंवला भील लहाय, अपने भाजन मांहि डराय ॥९२४॥ निज पाणीमें ले ओंटाय, जमी मांहि फिर डारै जाय । पहरि पाहनी तिन पर फिरै, फूटत तिन गुठली नीसरै ॥९२५॥ अरु भीलनके बालक ताम, तिनकी गुठली बीनत जाय । लूण साथी ले खाते जाही, झूठ होत तामें सक नांहि ॥९२६॥ जल भाजनको दोष लहन्त, पांय पाहनीसे खूदन्त । ऐसी उत्पत्ति बुध जन जान, धर्म पलै सोई मन आन ॥९२७॥ __ पानकी उत्पत्ति चौपाई काथ खात हैं पानहि मांहि, तिसके दोष कहै ना जाहि । प्रथम पान साधारण जान, राखै मास वरसलों आन ॥९२८॥ सरद रहै तिनमें अति सदा, त्रस उपजै जिनवर यों वदा । हिन्दु तुरक तंबोली जान, नीर निरंतर जिन छटकान ॥९२९॥ आँवलाकी उत्पत्तिका कथन आँवलेमें अधिक जीव रहते हैं इसलिये उसके सेवनसे क्रिया नष्ट होती है। हरे आँवलेको तोड़ कर भील लोग अपने बर्तनमें रखते जाते हैं, पश्चात् पानीमें ओंटा कर भूमि पर सुखाते हैं फिर जूता पहिन कर उन पर चलते हैं जिससे फूटकर उनकी गुठलियाँ निकल जाती हैं। भीलोंके बालक उनकी गुठलियाँ बीनते जाते हैं और नमकके साथ आँवलोंको खाते रहते हैं इसलिये वे जूठे हो जाते हैं इसमें संदेह नहीं है। भीलोंका जल, उनके बर्तन और पैरके जूतोंसे खूदा जाना यह सब दोष आँवलेमें हैं। इस प्रकार उनकी उत्पत्ति जान कर जिस विधिसे धर्मकी रक्षा हो वैसा करना चाहिये। भावार्थ-यह सब दोष बाजारमें बिकने वाले सूखे आँवलेमें है। क्रियावन्त पुरुष हरे आँवले लेकर उन्हें जलसे धोते हैं पश्चात् उनकी कली या छूना बनाकर सुखाते हैं उसके उपयोगमें दोष नहीं है ॥९२४-९२७॥ पानकी उत्पत्तिका वर्णन लोग पानमें जो कत्था खाते हैं उसके इतने अधिक दोष हैं कि वे कहे नहीं जा सकते। प्रथम तो पान ही साधारण वनस्पति है, उसे महीनों क्या, बरसों तक रक्खा जा सकता है। उसमें सदा आर्द्रता रहती है जिससे त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। पान बेचनेवाले तंबोली, हिन्दु या तुर्की (मुसलमान) रहते हैं वे उस पर निरन्तर पानीका छिड़काव करते रहते हैं ।।९२८-९२९।। उनके जलका बर्तन अत्यन्त अशुद्ध रहता है। जहाँ सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy