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क्रियाकोष
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तातें सब वरणन इह कियो, सुनहु भविकजन दे निज हियो । जिह्वा लंपटता दुखकार, संवरतें सुखपद है सार ॥९३७॥
दोहा व्रतधारी जे पुरुष हैं, अवर क्रियाधर जेह । तजहु वस्तु जो हीण है, त्यों सुख लहो अछेह ॥९३८॥ वरनोडी खीचला कूरेडी फली हरी वर्णन
चौपाई क्रियावान श्रावक है जेह, वस्तु इती नहि खैहैं तेह । रांधै चून बाजरा तणो, और ज्वारि चावलकों भणो ॥९३९॥ वरनोडी रु खींचला करै, करेडी फुलै हरि धरै । भाटै शूद्र सुखावै खाट, सीला वट वायौं सुनिराट ॥९४०॥ इह विधि वस्तु नीपजै सोई, ताहि तजो व्रत धरि अब लोई । अरु ले जाइ रसोईमांहि, सेकै तलै क्रिया तसु जाहि ॥९४१॥
होते हैं और जो त्याग नहीं करते हैं वे दुर्गतिको प्राप्त होते हैं। इसी उद्देश्यसे यह सब वर्णन किया है। हे भव्यजीवों ! इसे सुन कर हृदयमें धारण करो। जिह्वाकी लंपटता दुःख उत्पन्न करनेवाली है और उसका संवर (रोकना) सुखका श्रेष्ठ स्थान है। भावार्थ :-- यदि कत्था खानेका राग है तो खदिर वृक्षकी छाल या उसकी लकड़ीको लेकर उसके छोटे छोटे टुकड़े कर घर पर छने पानीमें औंटावो । जब उनका रंग पानीमें आ जावे तब छाल या टुकड़ोंको छान कर अलग कर दो और उस लाल पानीको आग पर चढ़ा कर औंटते रहो । जब अत्यधिक गाढ़ा हो जावे तब उसकी छोटी छोटी टिकिया बना कर सुखा लो। यह कत्था शुद्ध है अर्थात् व्रती जनोंके ग्रहण करने योग्य है ॥९३६-९३७॥
जो व्रतधारी अथवा अन्य शुभक्रियाओंके धारक पुरुष हैं उन्हें इन हीन-अयोग्य वस्तुओंका त्याग करना चाहिये क्योंकि उनके त्यागसे ही स्थायी सुखकी प्राप्ति होती है ॥९३८।।
वरनोडी खींचला कूरेडी फली हरी वर्णन जो क्रियावन्त श्रावक हैं वे इतनी वस्तुएँ नहीं खाते हैं जैसे बाजरा, ज्वार अथवा चावलके चूनको खारके पानीके साथ रांध कर उसके खींचला बनाते हैं और फूली हुई हरी कुरेडी (?) को सुखा कर रखते हैं। इसे मजदूरी पर लगे हुए शूद्र लोग खाट पर सुखाते हैं।... ....इस प्रकारकी विधिसे जो वस्तुएँ बनती है, उनका व्रती मनुष्यको त्याग करना चाहिये। जो मनुष्य हीन वस्तुओंको रसोईमें ले जा कर आग पर सेंकते हैं अथवा घृतादिकमें तलते हैं उनकी सब क्रियाएँ नष्ट हो जाती है ॥९३९-९४१।।
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