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________________ क्रियाकोष १३९ निकलि सूकरो होय नरक पद पाइयो, है अजगर लहि नरक बघेरो थाइयो; श्वभ्र जाय फिर गोधा तिरयग गति पई, नरक जाय कै मच्छ नरक पृथिवी लई॥८६७॥ नरक महीतें निकल महीदत्त थाइयो, उलुकादि दस तिरयग भव दुख पाइयो; नरक बार दस जाय महा दुख तें सह्यो, निसि भोजनके भखै श्वभ्र दुख अति लह्यो ॥८६८॥ दोहा महीदत्त फिर पूछवे, निसिभोजनतें देव । नर भवमें दुख किम लहै, सो कहिये मुझमेव ॥८६९॥ मुनि भाषै द्विज-पुत्र सुण, निसिमें भोजन खात । जीव उदरि जैहैं तबै, बहुविधि है उत्पात ॥८७०॥ सवैया इकतीसा माखीतें वमन होय, चींटी बुद्धिनाश करे, जूवातें जलोदर है, कोडी लूत करि है; काठ फांस कंटकतें, गलेमें वधावै विथा, बाल सुरभंग करै कंठ हीन परि है, जंगली जानवर हुआ, फिर नरक गया, वहाँसे आकर गीध पक्षी हुआ, पुनः नरक गया, पश्चात् सूकर हुआ, पुनः नरक गया, फिर अजगर हुआ, तदनन्तर नरक गया, वहाँसे आकर बघेरा हुआ, पश्चात् नरक गया, वहाँसे निकलकर गोह हुआ, पश्चात् नरक गया, तदनन्तर मच्छ हुआ, फिर नरक गया, वहाँसे निकलकर अब तू महीदत्त हुआ है। तूने दश बार उलूकादि तिर्यंच होकर तथा दश बार नरकमें उत्पन्न होकर घोर दुःख सहन किये हैं ॥८६६-८६८॥ महीदत्तने फिर पूछा कि हे देव! रात्रिभोजनसे मनुष्य भवमें किस प्रकार दुःख होता है ? यह भेद मुझे बताइये ॥८६९।। मुनिराजने कहा कि हे द्विज पुत्र ! सुन, जो पुरुष रातमें भोजन करते हैं उनके उदरमें जीव चले जाते हैं और वे अनेक प्रकारके उत्पात-रोग उत्पन्न करते हैं ॥८७०॥ जैसे, उदरमें यदि मक्खी चली जावे तो वमन होता है, चींटीसे बुद्धिका नाश होता है, जुवांसे जलोदर होता है, मकड़ी कोढ़ उत्पन्न करती है, काष्ठकी फांस या कंटक गलेमें फंस जाने पर पीड़ा होती है अर्थात् खाना पीना कठिन हो जाता है, बालसे स्वरभंग हो जाता है, गला बैठ जाता है, भ्रमरीसे शून्यता आती है, कसारी (?) से कम्पवायु उत्पन्न होती है, व्यन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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