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श्री कवि किशनसिंह विरचित
भ्रमरीतें सूना होय, कसारीतें कम्पवाय,
विन्तर अनेक भांति छल डर धरि है; इन आदि कथन कहाँ लौ कीजे वत्स सुन, नरक तिर्यंच थाय कहे जो उपरि है॥८७१॥
दोहा जो कदाचि मर मनुष्य है, विकल अङ्ग बिन रूप । अलप आयु दुर्भग अकुल, विविध रोग दुखकूप ॥८७२॥ इत्यादिक निशि अशनतें, लहिहै दोष अपार । सुनवि महीदत्त मुनि प्रते, कहै देहु व्रत सार ॥८७३।। मुनि भाषै मिथ्यात्व तजि, भज सम्यक्त्व रसाल । पूरव श्रावक व्रत कहे, द्वादश धरि गुणमाल ॥८७४॥ दरसन व्रत विधि भाषिये, करुणा करि मुनिराज। मुझ अनन्त भव उदधितें, तारणहार जहाज ॥८७५॥
सोरठा दोष पच्चीस न जास, संवेगादिक गुण सहित । सप्त तत्त्व अभ्यास, कहै मुनीश्वर विप्र सुन ॥८७६॥
देव अनेक प्रकारके छल करते हैं। इत्यादि उपद्रवोंका वर्णन कहाँ तक किया जाय ? नरक और तिर्यंचोंके दुःख ऊपर कह ही चुके हैं ॥८७१॥ यदि कदाचित् मर कर मनुष्य होता है तो विकलांग, रूपहीन, अल्पायुषी, दुर्भग, नाना रोगोंसे युक्त तथा दुःखका कूप होता है ।।८७२।। रात्रिभोजन करनेसे उपर्युक्त अपार दोष होते हैं। यह सुन कर महीदत्तने मुनिराजसे कहा कि हे नाथ ! मुझे कोई श्रेष्ठ व्रत दीजिये ॥८७३।।
मुनिराजने कहा कि मिथ्यात्व छोड़ो और अनेक गुणोंसे सहित सम्यग्दर्शनको धारण करो। यह कह कर उन्होंने पूर्वोक्त बारह व्रतोंका वर्णन किया ॥८७४।।
महीदत्तने कहा कि हे मुनिराज! आप मुझे कृपा कर दर्शन व्रत (सम्यग्दर्शनरूपी व्रत) की विधि कहिये । आप मुझे इस अनन्त संसार सागरसे पार करनेके लिये जहाजस्वरूप हैं ॥८७५॥
मुनिराजने कहा कि जो तीन मूढ़ता, छह अनायतन, आठ मद और शंकादिक आठ दोष, इन पच्चीस दोषोंसे रहित है, संवेगादिक गुणोंसे सहित है और सात तत्त्वोंके श्रद्धानसे सहित है वह सम्यग्दर्शन है। हे विप्र ! तू इसका श्रद्धान कर। यह निश्चय और व्यवहारकी अपेक्षा दो प्रकारका है। यह कह कर उन्होंने इस सम्यग्दर्शनका पहले जो विशेष वर्णन किया है वह सब
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