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________________ क्रियाकोष १२७ अडिल्ल छन्द मकडीका मुख थकी तन्तु निकसै जिसो, तिह समान जलबिन्दु तणौ सुणि एक सो; तामै जीव असंख्य उडै है भ्रमर ही, जंबूद्वीप न माय जिनेश्वर इम कही ॥७९७।। तथा चोक्तम्षट्त्रिंशदंगुलं वस्त्रं चतुर्विंशति विस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ॥७९८॥ तस्मिन् मध्यस्थितान् जीवान् जलमध्ये तु स्थापयेत् ।। एवं कृत्वा पिबेत्तोयं स याति परमां गतिम् ॥७९९।। अडिल्ल छंद वस्तर लंबो अंगुल छतीस सु लीजिये, चौडाई चोईस प्रमाण गहीजिये; गुडी विना अतिगाढौ दोवड कीजिये, 'इसै तांतणै छाणि सदा जल पीजिये ।।८००॥ इसी श्लोकका भाव कविवर किशनसिंहने अडिल्ल छन्द द्वारा स्पष्ट किया है-मकड़ीके मुखसे निकले सूक्ष्म तन्तुके समान पानीकी एक बूंदमें इतने असंख्य जीव हैं कि यदि वे भ्रमर होकर उड़ें तो जम्बूद्वीपमें न समावें ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। ___ भावार्थ-तीन लोक या जम्बूद्वीपकी बातसे कविने यह बतलाना चाहा है कि पानीकी एक बूंदमें अनन्त जीव होते हैं ॥७९७।। जैसा कि कहा है-छत्तीस अंगुल लम्बे और चौबीस अंगुल चौड़े वस्त्रको दुहरा कर उससे पानी छानना चाहिये तथा उसके मध्य स्थित जीवोंको उसी जलाशयके जलमें स्थापित कर देना चाहिये। इस विधिसे पानी छान कर जो पीता है वह परम गतिको प्राप्त होता है॥७९८-७९९॥ इन्हीं श्लोकोंका भाव कविवर किशनसिंह दो अडिल्ल छन्दोंमें दरशाते हैं छत्तीस अंगुल लम्बा और चौबीस अंगुल चौड़ा वस्त्र लीजिये। वस्त्र अत्यन्त गाढ़ा हो । ऐसे वस्त्रको गुडीके बिना दोहरा कीजिये। इस प्रकारके नातना-छननासे सदा जल छान कर पीजिये । उसमें जो जीव हैं उन्हें बड़े यत्नसे छने जलके द्वारा नीचे जलकी सतहमें डाल दीजिये। इस प्रकार हृदयमें दयाभाव धारण कर जो जल पीते हैं वे देवपदको निःसंदेह प्राप्त होते हैं और १इस विधि छाणि क० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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