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श्री कवि किशनसिंह विरचित
धीवर सम गणिये ताहि, जलको न जतन जिहि माहि । दुय दुय घटिकामें नीर, छाणौ मतिवंत गहीर ॥७९०॥ अथवा प्रासुक जल करिकै, राखै भाजनमें धरीकै ।
गृहकाज रसोई माहे, प्रासुक जल ही वरताहै ॥७९१॥ अणछाण्यो वरते नीर, ताको सुणि पाप गहीर ।। इक वरस लगै जो पाप, धीवर करिहै सो आप ॥७९२॥ अरु भील महा अविवेक, दों अगनि देय दस एक । दौं वनिकौं अघ इक वार, कीए जो है विसतार ॥७९३॥ अणछाण्यो वरतै पाणी, इस सम जो पाप बखाणी । ऐसो डर धरि मन धीर, बिनु गालै वरति न नीर ॥७९४॥
उक्तं च श्लोक संवत्सराणमेकत्वं कैवर्तकस्य हिंसकः । एकादश दव दाहेन अपूतजलसंग्रही ॥७९५॥ लूतास्यतन्तुगलिते ये बिन्दौ सन्ति जन्तवः ।
सूक्ष्मा भ्रमरमानाश्चेन्नैव मान्ति त्रिविष्टपे ॥७९६॥ जिसे जलकी यत्ना नहीं है उसे धीवरके समान समझना चाहिये। इसलिये हे बुद्धिमान जनों ! पानीको दो दो घड़ीमें छानना चाहिये अथवा पानीको प्रासुक कर एक बर्तनमें अलग रख लेना चाहिये । रसोई आदि गृहकार्योंमें उसी प्रासुक जलको काममें लाना चाहिये ॥७९०-७९१॥ ___ जो मनुष्य बिना छाना पानी व्यवहारमें लाते हैं उनको बहुत भारी पाप लगता है उसका वर्णन सुनो। धीवरको एक वर्ष तक जो पाप लगता है वह बिना छाना पानी बरतनेवालेको लगता है। अथवा कोई महा अज्ञानी भील ग्यारह बार दवाग्नि लगाता है, एक बार दवाग्नि लगानेमें जो पाप लगता है उसका ग्यारह बार लगाने पर बहुत विस्तार हो जाता हैं। बिना छाना पानी बरतने वाले मनुष्यको उस भीलके समान पाप बताया है इसलिये हे धीर वीर पुरुषों ! मनमें ऐसा डर रख कर बिना छाना पानी मत बरतो, व्यवहारमें मत लाओ ॥७९२-७९४॥
कहा भी हैं
धीवरको एक वर्षमें जितना पाप लगता है अथवा भीलको ग्यारह बार दवाग्नि लगानेसे जिस पापका संचय होता है वह बिना छाना पानी बरतने वाले पुरुषको लगता है। मकड़ीके मुखसे निकले तन्तुको पानीमें डुबा कर उससे जो एक बूंद टपकाई जाती है उसमें जो सूक्ष्म जीव हैं वे यदि भ्रमरके बराबर रूप रखकर विचरें तो तीन लोकमें न समावे ॥७९५-७९६॥
१ गृहकी जु रसोई माहे न० स०
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