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श्री कवि किशनसिंह विरचित तामै हैं जे जीव जतन करिकै सही, छाण्या जलतें अधर नीरमें खेपही; करुणाधर चित नीर एम पीवे जिके, सुरपद संसय नाहिं लहै शिवगति तिके ॥८०१॥
चौपाई ऐसी विधि जल छाण्या तणी, मरयादा घटिका दुइ भणी । प्रासुक कियोपहर दुयजाणि, अधिक उसनवसुजामवखाणि ॥८०२॥ मिरच इलायची लोंग कपूर, दरव कषाय कसैलो चूर । इनतै प्रासुक जल करवाय, ताको भाजन जुदो रहाय ॥८०३॥ इतनो प्रासुक कीजे नीत, जाम दोय मध्य होय व्यतीत । मरयादा ऊपर जो रहाय, तामें सन्मूर्छन उपजाय ॥८०४॥ अरु वै फिरि छाण्यो नहि परै, वांके जीव कहां लौ धरै । प्रासुक जलके भाजन मांहि, जो कहु नीर अगालित आंहि ॥८०५॥ ताके जीव मरै सब सही, उनको पाप कोई न इच्छही । तातें बहुत जतन मन आनि, प्रासुक कर बरतौ सुखदानि ॥८०६॥
वहाँसे आकर मोक्षपद प्राप्त करते हैं। भावार्थ-कितने ही लोग जीवानीको ऊपरसे डालते हैं जिससे जीव बीचमें ही दिवाल आदिसे टकरा कर नष्ट हो जाते हैं और जलकी सतह पर पहुँच कर स्वयं नष्ट हो जाते हैं तथा दूसरे जीवोंको भी नष्ट करते हैं इसलिये पानी छाननेके बाद उसे किसी भंवरकलीकी बालटीमें रख कर उसके द्वारा धीरे धीरे जलकी सतह तक पहुँचा देना चाहिये ||८००-८०१॥
इस विधिसे छाने हुए जलकी मर्यादा दो घड़ीकी है। यदि उसे प्रासुक कर लिया जाय तो दो प्रहरकी मर्यादा हो जाती है और अत्यन्त गर्म कर लिया जाय तो आठ प्रहरकी होती है ॥८०२॥ मिर्च, इलायची, लोंग, कपूर तथा कषैले द्रव्यके कषैले चूर्णसे जलको यदि प्रासुक किया है तो उसका बर्तन अलग रख लेना चाहिये। इस प्रकारकी विधिसे उतने ही जलको प्रासुक करना चाहिये जितना दो प्रहरमें खर्च हो जाय। क्योंकि मर्यादाके बाद जो जल शेष बचता है उसमें सन्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा जल फिर छाना नहीं जाता क्योंकि उसमें अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं उन्हें कहाँ रक्खा जावे ? प्रासुक जलके बर्तनमें यदि अनछना पाणी डाला जाता है तो उसके सब जीव मर जाते हैं। इस पापकी कोई इच्छा नहीं करता इसलिये बहुत यत्नके साथ पानीको प्रासुक कर व्यवहारमें लाना चाहिये ॥८०३-८०६॥
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