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श्री कवि किशनसिंह विरचित
निज घर आरंभ तजेई, परकों उपदेश न देई । भोजन निज पर घरमांही, उपदेश्यो कबहुं न खांही ॥७६२॥ व्यापार सकल तजि देई, सो 'सुरगादिक सुख लेई । प्रतिमा इह अष्टम नाम, आरंभ त्याग अभिराम ॥७६३॥ नवमी प्रतिमा सुनि जान, नाम जु परिगह परिमान । निज तनतें वसन धरांही, पढनैको पुस्तक ठांही ॥७६४॥ इनि बिन सब परिग्रह त्याग, मध्यम श्रावक बडभाग । दिव लांतव अरु कापिष्ठ, तहँलौ सुख लहै गरिष्ठ ॥७६५॥ प्रतिमा अनुमत तसु नाम, दशमी दायक सुखधाम । निज घरि अथवा परगेह, ले जाय असनकौं जेह ॥७६६॥ तिनकैं सो भोजन लेहै, उपदेश्यो कबहु न खैहै । निज परियण पर जन सारे, उपदेश न पाप उचारै ॥७६७।। ताको परिग्रह सुनि लेई, पीछी कमण्डलु जु धरेई ।
कोपीन कणगती जाकै, छह हाथ वसन पुनि ताकै ॥७६८॥ जो अपने घरके आरम्भका त्याग कर देता है और दूसरोंके लिये भी आरंभका उपदेश नहीं देता; जो भोजन, अपने या दूसरेके घर करता है परन्तु उपदिष्ट भोजनको कभी नहीं करता अर्थात् किसीसे यों नहीं कहता कि अमुक वस्तु बनाओ; और जो सब प्रकारके व्यापारका त्याग कर देता है वह स्वर्गादिकके सुख प्राप्त करता है। इस अष्टम प्रतिमाका मनोहर नाम आरंभत्याग प्रतिमा है ॥७६२-७६३॥
आगे परिग्रह परिमाण नामक नौवीं प्रतिमाका स्वरूप सुनो ! अपने शरीर पर धारण करने योग्य (तथा ओढ़ने बिछाने योग्य) वस्त्र और स्वाध्यायके लिये पुस्तक, इनके सिवाय अन्य सब परिग्रहका जो त्याग कर देता है वह बड़भागी मध्यम श्रावक है। इस प्रतिमाका धारी श्रावक लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग तकके श्रेष्ठ सुखोंको प्राप्त होता है ॥७६४-७६५॥
सुखदायक दसवीं प्रतिमाका नाम अनुमति त्याग है। भोजनके समय निज गृह या परगृहके जो लोग भोजनके लिये बुलाकर ले जाते हैं उनके घर भोजन कर आता है परन्तु उपदिष्ट भोजन कभी नहीं करता अर्थात् किसीसे यह नहीं कहता कि अमुक वस्तु बनाओ। अपने घरके तथा पर घरके लोगोंको कभी व्यापार और गृहनिर्माण आदि पापके कार्योंका उपदेश नहीं देता। यह मार्जनके लिये पीछी (वस्त्रखण्ड) और कमण्डलुका परिग्रह रखता है। वस्त्रोंमें लंगोटी और छह हाथका वस्त्र रखता है। इसके परिग्रहकी यह मर्यादा है। प्रमादवश इससे अधिक परिग्रह
१ सुरग तणो स० २ कान स०
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