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क्रियाकोष
१२३ एतो परिग्रह मरजाद, गहिहैं न अवर परमाद । एकादश प्रतिमा धारै, भाखै जिन दुय परकारै ॥७६९॥ प्रथमहि. क्षुल्लक ब्रह्मचार, उतकिष्ट अयल 'निरधार । क्षुल्लक संख्या परमाण, कपडो षट हाथ सु जाण ॥७७०।। इक पटो न सीयो जाकै, कोपीन कणगती ताकै । कोमल पीछी कर धारै, प्रतिलेखि रु भूमि निहारै ॥७७१॥ शौचादि निमित्तके काजै, कमंडलु ताकै ढिग २राजै । आहार निमित्त तसु जानी, मुकते घर पंच वखानी ॥७७२॥ उतकिष्ट अयल व्रतधारी, जिनकी विधि भाष्यों सारी । मठ मंडप वनके मांही, निसदिन थिरता ठहरांही ॥७७३॥ कोपीन कणगती जाकै, पीछी कमंडलु है ताकै । परिग्रह एतो ही राखै, इम कथन जिनागम भाखै ॥७७४॥ भोजन सो करय उदंड, घर पंच तणी थिति मंड ।
चित धरमध्यानमें राखै, आतम चितवन रस चाखै ॥७७५॥ नहीं रखता। ग्यारहवीं प्रतिमाके जिनेन्द्र भगवानने दो भेद कहे हैं-प्रथम क्षुल्लक ब्रह्मचारी और द्वितीय उत्कृष्ट एलक । क्षुल्लकके परिग्रहकी संख्या इस प्रकार है-वे छह हाथका वस्त्र रखते हैं, यह वस्त्र इकपटा अर्थात् जोड़से रहित और बिना सिला होता है । एक लंगोटी होती है, मार्जनके लिये कोमल मयूरपिच्छसे निर्मित पीछी हाथमें रखते हैं, उससे मार्जन कर जमीन पर बैठते हैं। शौचादिके निमित्त उनके पास कमण्डल रहता है। आहारके निमित्त पाँच घरकी छुट रखते हैं। तात्पर्य यह है कि क्षुल्लक एकभिक्ष और अनेकभिक्ष होते हैं। एकभिक्ष क्षुल्लक पडगाहे जाने पर एक ही घरमें आहार करते हैं और अनेकभिक्ष क्षुल्लक पाँच-सात घर जा कर आहार योग्य पदार्थ ग्रहण करते हैं । पर्याप्त आहार मिल जाने पर किसी श्रावकके घर प्रासुक जल लेकर भोजन करते हैं और अपना पात्र साफकर वापिस आ जाते हैं ॥७६६-७७२।।
द्वितीय उत्कृष्ट एलक है। इनकी सब विधि कहता हूँ। ये निरन्तर मठ, मंडप या वनमें रहते हैं। कौपीन, पीछी और कमण्डलु इतना ही परिग्रह रखते हैं ऐसा जिनागममें कहा गया है। उदंडाहार करते हैं अर्थात् चर्याके लिये निकलते हैं और पाँच घरों तक जाते हैं। अपना चित्त धर्मध्यानमें रखते हैं तथा आत्मचिन्तवनका रसास्वाद करते हैं अर्थात् आत्माके ज्ञाता द्रष्टा स्वभावका चिन्तवन कर सहज आनन्दकी अनुभूति करते हैं ॥७७३-७७५॥
१ गुरु धार न० २ छाजे न०
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