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________________ ११८ श्री कवि किशनसिंह विरचित किये अनन्तकाल बहु खेद, आतम तत्व न जानउ भेद । जबलौं दरसन प्रतिमा तणी, प्रापति भई न जिनवर भणी ॥७३३।। तातें फिर्यो चतुर्गति मांहि, फुनि भवदधि भ्रमिहै सक नांहि । प्रावर्तन कीये बहु वार, फिर करिहै 'जिसके नहि पार ॥७३४॥ आठ मूलगुण प्रथमहि सार, वरनन कियो विविध परकार । तातें कथन कियो अब नांहि, कहै दोष पुनरुक्त लगांहि ॥७३५॥ कुविसन सात कह्यौ विसतार, जुवा मांस भखिवो अविचार । सुरापान चोरी आखेट, अरु वेश्यासों करिये भेंट ॥७३६॥ इनमें मगन होइ करि पाप, फल भुगतें लहि अति संताप । तिनके नाम सुणो मतिमान, कहिहौं यथाग्रन्थ परिमाण ॥७३७॥ पाण्डुपुत्र जे खेलै जुवा, पांचों राज्यभ्रष्ट ते हुवा । बारह वरष फिरै वनमांहि, असन वसन दुख भुगते तांहि ॥७३८॥ मांसलुबध राजा बक भयो, राजभ्रष्ट है नरकहि गयो । तहां लहै दुख पंच प्रकार, कवि तिन कहि न सकै विसतार ॥७३९॥ परंतु आत्मतत्त्वके भेदको नहीं जाना। यतश्च इस जीवको जिनेन्द्र भगवानके कहे अनुसार दर्शनप्रतिमाकी प्राप्ति नहीं हुई इसलिये यह चतुर्गतिमें भ्रमण कर रहा है और आगे भी संसार सागरमें गोते लगाता रहेगा, इसमें संशय नहीं है ॥७३२-७३३॥ सम्यग्दर्शनके बिना इसने बहुत बार परिवर्तन किये हैं और आगे भी करता रहेगा। परिवर्तनोंका कुछ अन्त नहीं है ॥७३४॥ ___आठ मूल गुणोंका पहले वर्णन किया जा चुका है इसलिये पुनरुक्ति दोषकी आशंकासे यहाँ कथन नहीं किया है ॥७३५॥ अब सात कुव्यसनोंका विस्तार कहता हूँ-*जुवा खेलना, भक्ष्याभक्ष्यके विचारसे रहित होकर मांस खाना, मदिरापान करना, चोरी करना, शिकार खेलना, वेश्यासेवन करना और परस्त्री समागम करना ये सात कुव्यसन हैं ॥७३६॥ इन व्यसनोंमें निमग्न होकर जिन्होंने पाप किया है और अत्यधिक संताप प्राप्त कर पापका फल भोगा है, हे बुद्धिमान जनों ! उनके नाम सुनो, मैं आगमके अनुसार कहता हूँ ॥७३७।। ___पाण्डवोंने जुवा खेला, उसके फलस्वरूप पाँचों पाण्डव राज्यसे भ्रष्ट हुए, बारह वर्ष तक वनमें फिरते रहे और भोजन तथा वस्त्रका दुःख भोगते रहे ॥७३८॥ राजा बक मांसका लोभी हुआ उसके फलस्वरूप वह राज्यभ्रष्ट हो कर नरकमें गया। वहाँ वह जिन पाँच प्रकारके दुःखोंको १ जाको नहि पार न० स० जुवा खेलन मांस मद, वेश्या व्यसन शिकार। चोरी पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार ॥ -पार्श्वपुराण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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