SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रियाकोष प्रगट दोष मदिरातैं जान, नास भयो यदुवंस बखान । तपधर अरु हरि बल नीकले, बाकी अगनि द्वारिका जले ||७४०॥ वेश्या लगन करी हिय लाय, चारुदत्त श्रेष्ठी अधिकाय । कोडी बत्तीस खोइ दिनार, द्रव्यहीन, दुख सहै अपार ॥७४१॥ षटखंडी सुभूम मतिहीन, विसन अहेडामें अति लीन । पाप उपाय नरक सो गयो, दुख नानाविध सहतो भयो |७४२॥ परवनिताकी चोरी करी, रावण प्रतिहरि निज मति हरी । राम रु हरि सौं करि संग्राम, मरि करि लह्यौ नरक दुखधाम ॥ ७४३ || परयुवतीको दोष महंत, द्रुपदसुतास्युं हास्य करंत । कीचक फल पायो ततकाल, रावणहूं गनिये इह चाल ॥ ७४४ ॥ आठ मूल गुण पालै तेह, विसन सातकौं त्यागी जेह । अरु सम्यक्त्व जु दृढता धरै, पहिली प्रतिमा तासौं परै || ७४५ ॥ दोहा प्रथम प्रतिग्या इह कही, श्रावककै मुख जान । अब दूजी प्रतिमा कथन, कछु इक कहूं बखान ||७४६|| भोग रहा है उसका विस्तार कहनेके लिये कवि समर्थ नहीं है ॥७३९ || मदिरापानका दोष प्रकट है । इसके कारण यदुवंश नष्ट हो गया । जिन्होंने दीक्षा लेकर तप धारण किया वे तथा कृष्ण और बलराम ये दो ही बच कर निकल सके, शेष जीव द्वारिकाकी अग्निमें जल गये || ७४०॥ वेश्यासक्तिमें पड़ कर चारुदत्त सेठने बत्तीस करोड़ दीनारें खो दी और निर्धनताका अपार दुःख सहा ॥७४१॥ छह खण्डका स्वामी, बुद्धिहीन सुभौम चक्रवर्ती शिकारमें आसक्त हो पापोपार्जन कर नरकमें गया, वहाँ उसे नाना प्रकारके दुःख सहन करने पड़े || ७४२ ॥ प्रतिनारायण रावणने बुद्धिभ्रष्ट होकर परस्त्रीका हरण किया, राम और लक्ष्मणसे युद्ध किया तथा मर कर दुःखोंके स्थानस्वरूप नरकको प्राप्त किया || ७४३॥ ११९ परस्त्री व्यसनका महान दोष है । द्रौपदीके साथ हास्य करनेसे कीचकने तत्काल फल प्राप्त किया । इसी प्रकार रावणने भी इस कुचालके फलस्वरूप कुगतिको प्राप्त किया || ७४४|| जो आठ मूल गुणोंका पालन करता है, सात व्यसनोंका त्यागी होता है और दृढ़ताके साथ सम्यक्त्वको धारण करता है उसीसे पहिली दर्शन प्रतिमाका पालन होता है || ७४५ ॥ Jain Education International ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार यहाँ श्रावककी मुख्य पहिली दर्शन प्रतिमाका कथन किया। अब दूसरी व्रत प्रतिमाका कुछ व्याख्यान करता हूँ || ७४६ || १ राम लछनसों स० २ नरक द्रव्य देखे बेहाल स० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy