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________________ क्रियाकोष ११७ देव न मानै विनु अरहंत, दस विधि धर्म दयाजुत संत । तपधर मानै 'गुरु निग्रंथ, प्रथम सुद्ध यह दरसन पंथ ॥७२६॥ संवेगादिक गुणजुत सोय, ताकी महिमा कहिहै कोय । धरम धरमके फलको लखै, सो संवेग जिनागम अखै ॥७२७॥ जो वैराग भाव निरवेद, गरहा निन्दाको दुइ भेद । निज चित निंदै निंदा सोय, गरहा गुरु ढिग जा आलोय ॥७२८॥ उपसम जे समता परिणाम, भक्ति पंच गुरु करिये नाम । धरम रु धरमीसों अति नेह, सो रेवाछल्ल महा गुणगेह ॥७२९॥ अनुकंपा निति ही चित रहै, ए वसु गुण जो समकित गहै । दरसन दोष लगै पणवीस, सुनियो जो कथिता गण ईश ॥७३०॥ तीन मूढता मद वसु जान, अरु अनायतन षट विधि ठान । आठ दोष शंकादिक कही, दोष इते तजि दरसन गही ॥७३१॥ भो श्रेणिक सुन इस संसार, जीव अनंत अनंती वार । सीस मुडाय कुतप बहु कियो, केस लोच अरु मुनिपद लियौ ॥७३२॥ सुखकारी विचारको सुनो ॥७२५॥ जो अरिहंतके सिवाय अन्यको देव न माने, दयाधर्मसे सहित दश प्रकारके धर्मको माने और तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरुको स्वीकृत करे, वही दर्शन प्रतिमाका धारी है। सम्यग्दर्शनको शुद्ध रखनेका यही एक मार्ग है ॥७२६॥ सम्यग्दर्शनके इस लक्षणको धारण कर जो संवेगादिक गुणोंसे युक्त होता है उसकी महिमा कौन कह सकता है ? धर्म और धर्मके फलकी ओर लक्ष्य रखना, इसे शाश्वत जिनागममें संवेग नामका गुण कहा है ॥७२७॥ जो वैराग्यभावको धारण करना है उसे निर्वेद कहते हैं । अपराध होने पर गर्दा और निन्दा की जाती है। अपने मनमें पश्चात्ताप करना निन्दा है और गुरुके समीप आलोचना करना गर्दा है ॥७२८॥ समताभाव रखनेको उपशम कहते है। पंच परमेष्ठियोंके प्रति नम्रताका भाव रखना-उनकी श्रद्धा रखना सो आस्तिक्य गुण है। धर्म और धर्मीके प्रति स्नेह होना वात्सल्य नामका महान गुण है ॥७२९॥ चित्तमें निरन्तर दयाका भाव रहना अनुकम्पा नामका गुण है। जो सम्यग्दर्शनको ग्रहण करता है उसमें उपर्युक्त गुण प्रकट होते हैं। सम्यग्दर्शनमें पच्चीस दोष लगते हैं उनका कथन गणधर देवने जैसा किया है उसे सुनो ॥७३०॥ तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन, और शंकादिक आठ दोष, ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं ॥७३१॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सुनो, इस जीवने अनंती बार शिर मुड़ा कर बहुत कुतप किया, केश लोच कर मुनिपद धारण किया और अनन्तकाल तक बहुत कष्ट सहन किया १ मुनि स० न० २ वात्सल्य स. न. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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